आध्यात्म की परछाई




1-धर्म की परछाई-
 
          धर्म का अध्ययन करना एक गूढ विषय है,हमारे विद्वान लोग कई प्रकार के धर्मों का उल्लेख करते हैं,जिनमें पहला प्रकार अज्ञानता का है,जिसमें लोग अपनी अज्ञानता को वर्दास्त नहीं कर पाते हैं,इसलिए वे इसे छुपाते हैं।ऐसा आभास नहीं होता कि कोई व्यक्ति कुछ भी नहीं जानता है। इस विधि में प्रारम्भ में ऐसा लगता है जैसे कि इससे सुरक्षा हो रही है,लेकिन अंतिंम रूप में यह बहुत विध्वंसक है। इसका मूल श्रोत ही अज्ञान है।वैसे धर्म को एक रोशनी माना गया है,एक प्रकाश है,धर्म एक समझ है,धर्म अपने होश और हवास में रहना है। लेकिन देखा गया है कि अधिकॉश लोग पहले तरह के धर्म में ही रहते हैं,बस वे उस रिक्तता को झुठलाते रहते हैं,वे अपने अज्ञानता की अंधेरी काली खाई से बचने का प्रयास करते हैं।
 
          ये लोग कट्टर और उन्मादी होते हैं,वे यह भी नहीं जानते हैं कि दुनियॉ में दूसरे तरह के धर्म भी हो सकते हैं।उनका धर्म ही एक मात्र धर्म है। क्योंकि वे अपने अज्ञान से इतने अधिक डरे हुये होते हैं कि, यदि वहॉ कोई दूसरा धर्म भी है तो वे संदेही हो सकते हैं,उनके अन्दर संदेह उठ सकता है। वे इन दूसरे धर्मों को मानने को तैयार ही नहीं हो सकेंगे। वे उनके शास्त्र पढ नहीं सकेंगे।सत्य के सम्बन्ध में दूसरे मतों को सुन तक नहीं सकते। दूसरे लोगों के परमात्मॉ के ज्ञान को वरदास्त नहीं कर सकते,उनका परमात्मॉ ही एक मात्र परमात्मॉ है।उनके लिए पैगाम्बर एक मात्र अकेला पैगाम्वर होता है। इसके अतिरिक्त वे प्रत्येक चीज को नकली मानते हैं। वे तो वेशर्त होने की बात करते हैं। जबकि समझदार व्यक्ति सदैव तुलनात्मक होता है।ऐसे लोगों से धर्म को बहुत अधिक हानि पहुंची है,क्योंकि इन्ही लोगों के कारण वह धर्म मूढतापूर्ण दिखाई देता है।
 
          इस बात को हमें याद रखना होगा कि एस तरह के धर्म का हमें शिकार नहीं बनना है। अगर देखें तो अधिकॉश लोग इसी प्रकार के होते हैं।यह किसी अधर्म से कम नहीं है,बल्कि इससे भी निकृष्ट हो सकता है। क्योंकि अधार्मिक व्यक्ति हठी या दुराग्रही तो नहीं हो सकता है।कमसे कम दूसरों की सुनने के लिए तो तैयार होता है। लेकिन पहली तरह के लोग किसी भी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं होते हैं।
 
          एक दिन में अपने मित्र के घर गया था,उनकी मॉ कट्टर हिन्दू थी,वह पूर्णतः अशिक्षित थी,मगर बहुत अधिक धार्मिक। शॉम के समय मैं रिग्वेद पढ रहा था,इतने में माता जी आकर बोली बेटा क्या पढ रहे हो?मैने उन्हैं चिढाने के लिए कहा मैं कुरान पढ रहा हूं। माता जी जैसे कि उछलकर मेरी ओर आकर किताब को छीन ली और क्रोधित होकर जलती हुई अंगीठी में फेंक दिया,और कहने लगी कि तुम मुसलमान हो? तुमने मेरे घर में कुरान लाने का साहस कैसे किया? अगले दिन मैंने अपने मित्र से कहा कि आपकी मॉ मुसलमान लगती है।क्योंकि इसतरह की चीजें अभीतक मुसलमानों देखी जाती रही हैं।
 
          किसी किताब में पढने को मिला कि विश्व का सबसे बडा पुस्तकालय सिकंदरिया को जला दिया गया था।इस पुस्तकालय में प्राचीन सभ्यता की बहुमूल्य विरासत थी। विश्व के इस सबसे पुराने पुस्तकालय में जब आग लगी तो कहते हैं कि छ माह तक आग जलती रही। जिसने यह पुस्तकालय को जलाया वह एक मुसलमान खलीफा था।वह अपने एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में जलती मशाल को लेकर पुस्तकालयाध्यक्ष के सामने आकर बोला कि इस पुस्तकालय में लाखों करोणों पुस्तकें हैं,इस पुस्तकालय में जो कुछ भी है वह सबकुछ एस कुरान में है,इससे अधिक ज्ञान पुस्तकालय की इन पुस्तकों में हो ही नहीं सकता है।एसलिए इस पुस्तकालय की कोई भी आवश्यकता नहीं है। अगर इनमें कुरान से अधिक है तो वह गलत है। इसलिए इन्हैं तुरन्त नष्ट करना जरूरी है। इतने बडे पुस्तकालय का प्रवन्ध करने की क्या जरूरत है? एक कुरान ही काफी है। क्योंकि कुरान सर्वोच्च सत्य है।
 
          जिसदिन पुस्तकालय जलाया गया उस दिन मुहम्मद साहब जरूर रोये,विलखे होंगे। क्योंकि उनके ही नाम पर पुस्तकालय जलाया जा रहा था।इसलिए हमेशा सजग बने रहो,क्योंकि हर मनुष्य में ऐसा ही हठी और दुराग्रही मनुष्य बैठा हुआ रहता है। ये लोग हिन्दू,मुसलमान,जैन,सिक्ख,ईसाई कोई भी हो सकते हैं।
 
          होता क्या है कि अधिकॉश लोग इस तरह के धर्म में पले बढे हैं और उसमें जीवन यापन के आदी हो गये हैं,इसलिए उन्हैं यह जीवन सामान्य जैसा लगने लगा है।एक हिन्दू इस विचार के साथ पाला पोसा जाता है कि दूसरे सारे धर्म गलत हैं।अगर उसे सहनशील बनाना भी सिखाया जाए तो वह उसे दूसरों के लिए जानता है,अपने लिए नहीं।एक जैन पूरी तरह से इस विश्वास के साथ पाला पोसा जाता है कि वह ही ठीक है और अन्य सभी लोग अज्ञानी हैं। ऐसे लोग ठोकरें खा रहे होते हैं,वे लोग अंधेरे में टटोल रहे होते हैं।इस तरह का अनुशासन और आदतें उनके अन्दर इतनी गहराई से प्रविष्ट हो जाती हैं कि वे यह भी भूल जाते हैं कि सभी थोपे गये संस्कार और आदतें हैं,और उन्हैं उनसे ऊपर उठना है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति एक निश्चित अनुशासन और आदतों के ढॉचे में अभ्यस्त हो जाता है,और यह सोचना शुरू कर देता है कि माना यह उसका स्वभाव है,या मानो वही सत्य है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अन्दर इस तरह की निम्न भावना को खोजते वक्त सजग और सचेत होना होगा,जिससे वह उसके जाल में पकडा न जा सके।
 
2-धर्म के नाम पर रूपान्तरण की लालसा-
 
          हमारे जीवन में ऐसे भी क्षण आते हैं कि हम अपने जीवन को रूपान्तरित करने के लिए कठिन कार्य करते हैं,हम उस धर्म में विश्वास किये चले जाते हैं। उस समय हम निम्न तल में होते हैं,क्योंकि यह कोई क्रॉति नहीं है बल्कि हम ऐसी चीज पाने का प्रयास कर रहे गोते हैं,जो कि निम्न तल की है।और इस पहले तल को नाम मात्र का धर्म कहते हैं।क्योंकि निम्न तल में कोई धार्मिक नहीं हो सकता है।
 
          इस तरह के धर्म की विशेषता है कि इसमें अनुकरण करने के लिए कहा जाता है,अनुकरण करने का आग्रह करता है।बुद्ध का अनुकरण करो,जीसस का अनुकरण करो,महॉवीर का अनुकरण करो,लेकिन अनुकरण अवश्य करो।स्वयं के होकर मत रहो,किसी और जैसे बनो। और यदि तुम बहुत ही जिद्दी या हठ्ठी हो तो तो तुम अपने आप को किसी और के जैसा बनाने को विवश कर सकते हो। लेकिन तुम कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति जैसे कभी नहीं बन सकोगे,अपने गहरे में तुम वैसा हो ही नहीं सकोगे।लेकिन तुम बल प्रयोग वैसा कर सकते हो। तुम किसी दूसरे को वैसा दिखाने लायक बन सकते हो। यदि तुम बुद्ध बनने का प्रयास करते हो हो तो तुम बुद्ध की नकल तो कर सकते हो,और बुद्ध जैसा भी दिखाई दे सकते हो,बुद्ध की तरह चल भी सकते हो,उन्हीं की तरह बात-चीत भी कर सकते हो मगर अंत में तुम चूक जाओगे।प्रकृति कभी अपने आप को दुहराती नहीं है। वर्तमान में,अतीत में, या भविष्य में भी अपने जैसा मनुष्य खोजा नहीं जा सकता है। मनुष्य होना कोई यॉत्रिक प्रक्रिया नहीं है कि पुर्जे जोडकर बना दिया।इसी प्रकार बुद्ध भी एक ही बार हुये। हर मनुष्य के पास अपनी आत्मॉ है,और वह भी वैयक्तिक है। इसका अनुकरण करना विष के समान है,कभी किसी का अनुकरण न करें। वरना प्रथम प्रकार के धर्म के शिकार हो जाओगे,जोकि वास्तव में किसी भी प्रकार का धर्म ही नहीं है।
 
 
3-भय पर आधारित धर्म-
 
          धर्म का यह दूसरा प्रकार है,यह धर्म भय पर आधारित है।इसमें मनुष्य भयभीत रहता है,यह संसार उसके लिए अजनवी है। वह सुरक्षा चाहता है।बचपन में माता-पिता की सुरक्षा थी,लोग बचपन को पार करके आगे सुक्षित नहीं रह पाते हैं,वे भटकते रह जाते हैं।वे अभी भी अपने माता-पिता की जरूत महशूस करते हैं। इसीलिए वे परमात्मॉ को परम पिता या मातृ शक्ति कहकर पुकारते हैं। अपनी सुरक्षा के लिए उन्हैं एक दैवी-पिता का आवश्यकता महशूस होती है।
 
          जब तुम कभी भयभीत होते हैं तो परमात्मॉ का स्मरण करना शुरू कर देते हो।हमारा परमात्मॉ हमारे भय का बाई-प्रोडक्ट है,वह भय से स्वतः उत्पन्न हुआ है। और जब तुम्हें भय नहीं रहता है तो उस समय हमें उसकी कोई जरूरत नहीं होती है। यह धर्म भय की ओर उन्मुख रहता है। यह मानसिक बीमारी जैसी है क्योंकि इसमें परिपक्वता तभी आती है जब यह महशूस करोगे कि अकेले हो और अकेला ही रहना है। ये मूर्तियॉ कल्पनाएं हैं, वे हमारी सुरक्षा नहीं कर सकती हैं।यदि मृत्यु होनी जा रही है तो होगी ही,कुछ भी होने जा रहा है होगा ही,उस समय तुम परमात्मॉ को पुकारते जाओ पर तुम्हारे पास सुरक्षा आने से रही। तुम भयभीत होने के कारण उसे पुकार रहे हो,वास्तव में देखें तो तुम किसी को भी नहीं पुकार रहे हो,बस इससे तुम्हैं साहस मिलता है।यह प्रार्थना तुम्हैं साहस देती है।इसका उत्तर देने के लिए वहॉ केई भी परमात्मॉ नहीं है। लेकिन तुम्हारा ऐसा खयाल है कि वह है वहॉ, जो कि तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे। इससे तुम्हें थोडा सुकून और शॉति मिलती है।
 
          यह भय पर आधारित धर्म है.यह मत करो वह मत करो। और वैसे भी देखें तो भय स्वयं में नकारात्मक है। मूसा ने अपने जो दस उपदेश दिये थे वे सभी भय पर ही तो आधारित हैं। कोई भी जोखिम मत उठाओ,कभी किसी खतरनाक रास्ते की ओर मत बढो?यह अपने आप में जीवन्त बने रहने की अनुमति ही नहीं देता। इसका अर्थ हुआ कि यह धर्म भी पहले प्रकार के धर्म जैसा है,वैसा ही नकारात्मक है। यह विशेष क्रकार का जकडन और बंधन है। इसमें जीवन का स्तित्व असुरक्षा में ही है। परमात्मॉ का अस्तित्व जैसे असुरक्षा,खतरा और जोखिम भरा है।
 
          यह धर्म भय की ओर उन्मुख होने वाला धर्म है।क्या खाना है,क्या नहीं खाना है,उस स्त्री से प्रेम करना है या नहीं करना है,वह घर बनाना है या नहीं बनाना है। इसका मतलव हुआ कि तुम उसकी शक्ति के सिकंजे में होते हो।क्योंकि किसी भी चीज का दमन करने से वह तुम्हारे गहरे में चली जाती है,वह तुम्हारी जडों तक पहुंचकर तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषयमय बना देती है।
 
          जो लोग भयवशःसंस्कारों के द्वारा जीवन जीते हैं वे किसी एक चीज से तो दूर हो सकते है,मगर वे किसी दूसरे जाल में फंस जाते हैं,इसलिए कि उनके पास अपनी समझ नहीं है,उनके पास केवल भयसे उत्पन्न स,मझ है। वे उससे डरे हुये हैं कि उन्हैं नर्क में जाना होगा। ।
 
          एक सच्चा धर्म हमें निर्भयता दोता है,हमें इसी को मापदण्ड बनाना चाहिए कि यदि यदि धर्म तुम्हें भय देता है तो तब वह वास्तव में धर्म है ही नहीं।
 
 
4-लोभ से उत्पन्न धर्म-
 
          तीसरा प्रकार का धर्म लोभ से उत्पन्न होता है। इसमें प्रत्येक कार्य इस प्रकार से करना होता है कि मानो इस संसार के पार दूसरा संसार पूरी तरह सुरक्षित रहे।और मृत्यु के बाद भी तुम्हारी प्रशन्नता और सुख की पूरी गारण्टी हो।यह करो और इस प्रकार करो,महत्वाकॉक्षी और कामनाओं से भरा हुआ होता है।हिन्दू हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई सभी की स्वर्ग की कल्पना को देखें तो पायेंगे कि सभी लोग इस जीवन में जिन चीजों से इंकार किये चले जाते हैं,वे उन चीजों की स्वर्ग में सुविधाएं चाहते हैं। मुसलमान शराब के सेवन को मना करते हैं मगर स्वर्ग में शराब की नदियॉ बह रही है। ये चीजें भ्रामक लगती है जो चीज यहॉ गलत है वह स्वर्ग में कैसे सही हो सकती है। इसीलिए उमर खय्याम ठीक कहते हैं कि अगर स्वर्ग में शराब की नदियॉ बह रही हैं तो क्यों न हम लोग इसका अभ्यास करना शुरू कर दें,अगर हम अभ्यास के विना जाते हैं तो वहॉ हमें कठिनाई होगी। इसलिए इस जीवन में पूर्वाभ्यास किया जाय ताकि हमारे अन्दर उसको लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाय।इधर हिन्दुओं में देखें तो स्वर्ग में सुन्दर अप्सराएं होती है,अगर इस जीवन में ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करते हैं तो तभी वे अप्सराएं स्वर्ग में हमें मिल पाती है। सच तो यह है कि इस तरह की धारणॉएं ही मूर्खतापूर्ण की हैं। लेकिन लोग इस लालच के कारण ही धार्मिक बने हुये हैं।
 
          इस सम्बन्ध में हमें यह भी जान लेना होगा कि हम जो भी इकठ्ठा करते हैं वह हम से छीन ली जाती है,मृत्यु हमसे सबकुछ अपने साथ ले जाती है,इसीलिए लालची लोग यहॉ कुए ऐसी चीज इकठ्ठा करना चाहते हैं,जिसे मृत्यु अपने साथ न ले जा सके। लेकिन संग्रह की उनकी चाह ज्यों की त्यों बनी रहती है।वह दूसरेसंसार के लिए वह पुण्य का संग्रह किये चले जाता है।
 
 
5-तीनों धर्मों का परस्पर सम्बन्ध-
 
          ऊपर तीन तरह के जो धर्म बताये गये ये परस्पर एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं। ऐसा कोई भी नहीं दिखाई देता है जो तीनों में से किसी एक ही प्रकार के धर्म को स्वीकार करता हो। हर एक में तीनों का मिश्रण होता है।जहॉ कहीं लोभ होता है तो भय भी होता है।लेकिन जहॉ लोभ और भय दोनों एक साथ होता है वहॉ अज्ञान होता है। अगर देखें तो ये तीनों निम्न कोटि के हैं इसलिए इन्हें धर्म नहीं कहना चाहिए।
 
 
6-मनुष्य का जीवन बहुत नाजुक होता है-
 
          इस सम्बन्ध में अमेरिका के एक धनी व्यक्ति का उदाहरण आता है,जब उसे इस बात का अहसास हुआ कि बस उसके आस-पास अब परमाणु हमला होने वाला है तो कहते हैं कि उसको पक्का विश्वास था कि वह उसके वाद भी जीवित रहेगा।उसने एक विशाल मरुस्थल में कई मंजिला भवन बनाया। जमीन से पॉचमंजिला नीचे अपने रहने के लिए बनवाया जिसे कहते हैं कि पचास गज मोटे शीशे के खोल से धका गया था,इसमें हर प्रकार की सुविधा थी। और परमाणु हमले से यह स्थान पूर्णतः सुरक्षित रह सकता था। उसका मालिए हमेशा गर्व से भरा हुआ रहता था। एक दिन वह मरुस्थल में उस स्थान का निरीक्षण करने निकला ही था कि एक रेडइंडियन द्वारा पीछे से एक तीर मारकर उसकी हत्या कर दी। बस हर मनुष्य का जीवन भी ऐसा ही है ,वह हर प्रकार का प्रवन्ध करता है,लेकिन उसे समाप्त करने के लिए एक तीर ही काफी है।
 
          हमारा यह जीवन बहुत ही नाजुक है मनुष्य तर्क से इस सत्य को कैसे समझ सकता है? उसकी समझ की दृष्टि इतनी छोटी है कि वह तर्क द्वारा उसे समझ नहीं सकता है। तर्क वितर्क द्वा दर्शनशास्त्र का जन्म होता है, मगर सच्चे धर्म का जन्म नहीं होता !
 
 
7-सौन्दर्य कोई पदार्थ नहीं होता है-
 
          किसी फूल में सौन्दर्य उसके खण्डों में नहीं होता है। एक बार अगर फूल की अखण्डता को नष्ट कर दिया जाय तो उसका सौन्दर्य भी नष्ट हो जाता है।उस फूल का सौन्दर्य उसकी अखण्डता में होता है। यही बात अन्य जगहों पर भी लागू होती है।यदि एक मनुष्य के शरीर की चीर-फाड की जाय तो उसका जीवन विलुप्त हो जाता है,यह शरीर उस समय केवल मुर्दा कहलाता है। उस स्थिति में उस शरीर में पानी की मात्रा,फेफडे या गुर्दों की प्रक्रिया,उस शरीर में अल्युमीनियम या आयरन की मात्रा समझ सकते हैं।उस शरीर में प्रत्येक चीज है,लेकिन एक चीज नहीं है,वही चीज सबसे मूल्यवान है। जिसे हम वास्तव में समझना चाहते हैं।वैज्ञानिक भी अब सजग होने लगे हैं कि जब तुम मनुष्य के रक्त में रक्त लेकर परीक्षण करते हो तो वह वही रक्त नहीं है,बल्कि रक्त प्रवाह में बहते हुये वह जीवन्त था,उसमें जीवन की धडकन थी,अब वह केवल मृत रक्त है।
 
          एक गुलाब के फूल में से उसका रंग ले सकते हैं,लेकिन क्या यह उसी गुलाब के फूल का जीवन्त रंग है?वह वैसे ही लगता तो है,लेकिन ठीक वैसा ही हो नहीं सकता है।उसकी सुगन्ध कहॉ चली गई?वह जीवन्तता और नाजुकता कहॉ चली गई? अब उसमें जीवन की धडकन कहॉ है?जो उस गुलाब के फूल में थी,उस समय तो उनका पूरी तरह से एक भिन्न संयोजन था,और तब उसमें एक जीवन था,उस समय उसके ह्दय में परमात्मॉ की धडकन थी।उसे तोड लिया गया,उसके सभी खण्ड उसमें है,लेकिन तुम यह नहीं कह सकते कि उसके सभी खण्ड वैसे ही हैं। और हो भी नहीं सकते,इसलिए कि खण्डों का अस्तित्व अखण्ड होने में ही है।

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