आशावाद और निराशावाद की जडें


1-आशावाद व निराशावाद का सम्बन्ध-
 
          हमारी जिन्दगी में आशा और निराशा दोनों दिखाई देते हैं। एक के वाद दूसरा सामने आता है,या कभी दोनों एक साथ दिखते हैं। इसका मतलव हुआ कि दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है,यह भी कह सकते हैं कि दोनों एक ही है, भले ही वे अलग-अलग दिखाई देते हैं। जबकि दोनों एक दूसरे के एकदम विपरीत ध्रुव हैं। हमेशा एक निराशावादी आशावादी भी होता है। जबतक हमारे सामने दोनों हैं,हमें असन्तोष रहता है, और जब दोनों चले जाते हैं तब हम विश्राम करते हैं,क्योंकि दोनों ही हमारे लिए गलत हैं,असन्तोष देने वाले होते हैं।

 
2-आशावादी उजाला और निराशावादी अंधेरा है-
 
क-          अगर निराशावादी को देखें तो वह अंधेरे पक्ष की ही ओर देखे चले जाता है, और उजले पहलू से इंकार करता है,वह आधे सत्य को ही स्वीकार करता है। जबकि आशावादी लोग चीजों के अंधेरे पक्ष से इंकार करते हैं,केवल उजले पक्ष को ही स्वीकार करते हैं,लेकिन यह भी आधा ही सत्य होता है। अर्थात आशावादी और निराशावादी दोनों पूर्ण सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं। क्योंकि पूरा सत्य दोनों एक साथ हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे जन्म और मृत्यु,अच्छा और बुरा,अन्धकार और प्रकाश। दोनों आधे को इंकार करते हैं।
 
ख-          यदि निराशावादी गलत है तो आशावादी भी गलत है। दोनों तो सत्य जैसे हैं।लेकिन उन्हैं वैसा ही स्वीकार करने को तैयार नहीं होते हैं,चुनाव करना होता है।इस लिए खुले आकाश के नीचे आकर देखें,चुनाव करने की आवश्यकता नहीं होगी,जो सत्य जैसा है उसे वैसे ही रहने दो,बस अपने चित्त वृत्ति के अनुसार उसमें रंग भर दो। तथ्य को समझने का प्रयास करो,अपने चित्तवृत्ति की प्रकृत्ति को उससे न जोडो,उसे न तो आशा भरी दृष्टि से और न निराशा भरी दृष्टि से देखो।
 
ग-          अगर देखें तो आशावाद एक प्रार्थना है,इसलिए आशावादी होकर जीना सुन्दर माना जाता है। किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना सौभाग्य है जो फूलों की सुगन्ध जैसी बातें करता है। लेकिन देखा जाता है कि अधिकॉश लोग निराशावादी होकर जीते हैं,उनके लटके हुये चेहरे हमेशा शिकायतें करते हुये झुंझलाते रहते हैं,कॉटों की तरह हमेशा बात करते हैं।यह गलत है।

 
3-हमेशा आशावादी बने रहो-
 
          हमेशा आशावादी से मिलना अच्छा लगता है। ऐसे लोगों की संख्या कम ही होती है वरना निन्यानब्बे प्रतिशत लोग निराशावादी होते हैं। वे पीडा और दुखों के प्रति देखते ही नहीं हैं बल्कि उनकी प्रतीक्षा भी करते हैं। वे समझते हैं कि कुछ न कुछ घटना घटने वाली है,जो कि गलत होगी ही,वे तो पहले ही से तैयार रहते हैं।अगर ऐसा नहीं होता है तो वे निराश हो जाते हैं। निश्चित रूप से ऐसे लोग गलत हैं। लेकिन दूसरी ओर वे लोग जिनकी संख्या कम है जो काले बादलों को विद्धुत के लिए देख रहा है,जो अंधेरे में उगती सुबह का इंतजार कर रहा होता है,वे लोग मूल्यवान बन जाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि सुबह बहुत निकट है,वह हमेशा आशा में भरा होता है।

 
4-सच्चिदानन्द सुखःदुख से परे है-
 
          हमें इस बात को नहीं भूलना होगा कि आशावादी और निराशावादी दोनों ही गलत है। क्योंकि जीवन काला और सफेद दोनों है। एक छोर पर काला तथा दूसरे छोर पर सफेद और मध्य भाग में स्लेटी रंग का शैड होता है। जो व्यक्ति इन दोनों को समझता है वह चुनाव रहित हो जाता है,वह न तो आशावादी होता है और न निराशावादी होता है। वह न तो वह प्रशन्न होता है और न उदास। बुद्ध वही तो होते हैं जो न दुखी,पीढित होते हैं और न परमानन्द में डूबे होते हैं। वे कोई उत्तेजना जानते ही नहीं हैं,वे तो शॉत और मौन होते हैं।यही तो आध्यात्मिक आनन्द है।सच्चिदानन्द प्रशन्नता नहीं है,क्योंकि प्रशन्नता में उत्तेजना होती है,एक तरह का ज्वर होता है,जिससे देर सबेर थक जाते हैं,क्योंकि यह अस्वाभाविक है।इसलिए आपको बदलना होगा। सच्चिदानन्द न तो सकारात्मक है और न नकारात्मक है,बल्कि इस द्वन्द के परे है। आपको शॉत,केन्द्रित,चिंतामुक्त और अद्विग्न बनना होगा,अच्छा या बुरा जो भी घटता है,दोनों को स्वीकार करना होगा,क्योंकि दोनों इस जीवन के जोड हैं।

 
5-कॉटे और फूलों का पूर्ण अस्तित्व है-
 
          कभी-कभी कोई लम्बे समय से निराशावादी जीवन यापन कर रहा होता हैं और वह बुरी तरह थक जाता हैं, तो वह एक दिन महसूस करता है कि, वह अनावश्यक रूप से दुखी और अप्रशन्न रहता है,आखिर क्यों? क्यों मैं गुलाब की झाडी में कॉटों को ही गिनता रहूं? अंधेरे पक्ष की ओर ही देखे चले जा रहा हूं। इसलिए मुझे अपना रौल बदल लेना चाहिए,फिर वह जैसे फिसलकर आशावादी बन जाता है। इस तरह वह एक ओर से दूसरी ओर चले जाता है। लेकिन होता क्या है कि वह एक आधे से दूसरे आधे की ओर गतिशील होता है,और पूर्णता से उतनी ही दूर बनी रहती है,जितनी कि पहले थी। क्योंकि गुलाब की झाडी में कॉटे और फूल दोनों वहॉ एक दूसरे के साथ-साथ ही रहते हैं,वे एक दूसरे के विरुद्ध नहीं होते हैं,दोनों एक दूसरे के दुश्मन नहीं हैं,बल्कि कॉटे पूलों की रक्षा करते हैं,कॉटे और फूलों का गुलाब की झाडी में पूर्ण अस्तित्व होता है।अच्छे और बुरे दोनों साथ-साथ जुडे हैं। लेकिन जब हमें सही समझ आती है तो हम इन दोनों के पार चले जाते हैं। फिर वहॉ हम शॉत बने रहते हैं।क्योंकि वहॉ न तो प्रशन्न होने के लिए है और न दुखी होने के लिए है।

 
6-प्रशन्नता और अप्रशन्नता दोनों एक साथ रहते हैं-
 
क-          होता यह है कि यदि हम प्रशन्न रहते हैं तो,हम अपने अचेतन की गहराई में कहीं न कहीं अप्रशन्नता की सम्भावना भी लिए चल रहे हो,क्योंकि हम प्रशन्न तभी होते हैं जब हम अप्रशन्न भी हो सकते हैं। दोनों सम्भावनाएं एक साथ बनी रहती है।ये दोनों अलग-अलग नहीं की जा सकती हैं,वे तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।यदि हम एक पहलू को रखते हैं तो दूसरा भी हमारे साथ रहता है।यदि हम अपने चेतन मन में निराशावादी बन जाते हैं तो अपने चेतन में आशावादी भी बने रहते हैं।और यदि हम अपने अचेतन मन में आशावादी रहते हैं तो अचेतन मन में निराशावादी भी बने रहेंगे।

ख-          मनुष्य प्रशन्नता और अप्रशन्नता दोनों के साथ जन्म लेता हैं। बस तुम जब चाहो तो उनका रौल बदल सकते हो। लोग हर समय रौल बदलते रहते हैं।सुबह तुम आशावादी होते हैं तो शाम आते ही निराशावादी बन जाते हैं या थोडे ही समय बाद हमारा रौल बदल जाता है।जैसे भिखारी सुबह जब भीख मॉगने जाते हैं तो बहुत सारे लोगों को देखकर आशावादी होते हैं,लेकिन शाम आते आते जीवन की गन्दगी जानने के बाद निराशावादी बन जाते हैं,वे थककर हताश और क्रोधी हो जाते हैं। फिर वह शाम को भीख मॉगने नहीं जाते हैं। सुबह के समय लोग खुले ह्दय के और उदार होते हैं,लेकिन शाम होते ही लोग नकारात्मक बन जाते हैं।
 

7-परिस्थितियों से नयॉ वातावरण बनता है-
 
          छोटी-छोटी चीजे वातावरण बदल देती हैं,सम्बन्ध और रिश्ते बदल जाते हैं। आपने कभी निरीक्षण किया होगा कि आप उदास बैठे हैं और उसी समय कोई व्यक्ति आता है,और वह व्यक्ति हंसी मजाक करने वाला है,वह हंसने की बात करता है, तो आप भूल जाते हैं कि आप उदास भी थे,हंसना शुरू कर देते हो,आप हंस ही रहे थे कि अचानक आपका कोई ऐसा मित्र पहुंचता है जो उदासी साथ लेकर आता है, तो आप में भी जैसे फिर उदासी आने लगती है।वास्तव में अगर देखें तो इस संसार में कोई भी झूठ नहीं है,केवल सत्य और अर्द्ध सत्य है,सभी अर्द्ध सत्य ही झूठ है, और सत्य कभी आधा नहीं होता है बल्कि पूर्ण ही होता है।

 
8-आत्मविश्वास से श्रद्धा बनती है-
 
          जिन लोंगों में आत्मविश्वास है उनमें तो श्रद्धा का जन्म होता है।यदि तुम अपने में श्रद्धा नहीं रख सकते तो तुम दूसरे पर भी श्रद्धा नहीं कर सकते हो,क्योंकि जो लोग स्वयं पर श्रद्धा करते हैं वे ही दूसरों पर श्रद्धा कर सकते हैं।यदि तुम अपने पर विश्वास नहीं करते हो तो दूसरे पर विश्वास कैसे कर सकोगे? हो सकता है तुम्हारा मुझपर विश्वास हो,लेकिन यह तो तुम्हारा विश्वास है,मगर तुम्हारा तो स्वयं पर ही विश्वास नहीं है, इसलिए यह प्रश्न मेरे बारे में न होकर तुम्हारे सम्बन्ध में है।ऐसे लोग वही हो सकते हैं जो अपने पर विश्वास नहीं करते हैं,लगता है कहीं कोई चीज उनके साथ गलत हो गई है। वे लोग वही हैं जो अच्छी छवि नहीं रखते हैं,जो स्वयं के प्रति निन्दा से भरे होते हैं। वे अपराध बोध से ग्रसित होते हैं।वे स्वयं को गलत होने का अनुभव करते हैं।वे तो यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे गलत नहीं हैं,लेकिन अपने गहरे में वे यह अनुभव करते हैं कि वे गलत हैं।
 

9-विश्वास का गहरी जडों से सम्बन्ध-
 
          अगर मनोविज्ञान की दृष्टि से देखें तो जो व्यक्ति स्वयं पर विश्वास नहीं करता,उनकी गहरी जडों के साथ कोई समस्या होती है।कहीं न कहीं मॉ और बच्चे के सम्बन्धों में वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए था। क्योंकि बच्चे के अनुभव में मॉ ही सबसे पहले आती है।यदि मॉ बच्चे पर विश्वास और प्रेम करती है तो बच्चा भी मॉ पर विश्वास और प्रेम करना शुरू कर देता है। मॉ के माध्यम से ही तो बच्चा संसार के बारे में सजग होता है। मॉ ही वह खिडकी है,जहॉ से वह अस्तित्व में करता है। फिर धीरे-धीरे मॉ और बच्चे के बीच एक सुन्दर सम्बन्ध बनने लगते है। उन दोनों के बीच गहरी संवेदनशीलता और ऊर्जा का गहराई तक हस्तॉतरण होता है। तब बच्चा दूसरों पर भी विश्वास करना शुरू करता है।यह विश्वास वह इसलिए करने लगता है कि उसका पहला अनुभव सुन्दर था और यह संसार भी सुन्दर है।

 
10-बचपन और विश्वास का सम्बन्ध-
 
क-          यदि बचपन में तुम्हारे चारों ओर गहरे प्रेम का वातावरण था तो तुम धार्मिक बनोगे,और तुम्हारे अन्दर विश्वास का उदय होगा।फिर विश्वास करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण बन जायेगा। एक व्यक्ति तुम्हें धोखा देता है तो हो सकता है उस व्यक्ति पर विश्वास नष्ट हो जाय,लेकिन इससे तुम पूरे लोगों पर अविश्वास करना शुरू नहीं कर दोगे।तुम तो यही कहोगे कि यह तो ऐसा एक व्यक्ति है,अन्य पर अविश्वास क्यों किया जाय? लेकिन यदि मूल विश्वास में ही कमी रह गई अर्थात तुम्हारे और मॉ के मध्य ही कुछ चीज गलत हो गई,तो अविश्वास ही मूल गुंण बन जायेगा। उस दशा में तुम स्वाभाविक रूप से अविश्वास करने लगते हो।वहॉ फिर किसी को कुछ भी सिद्ध करने की जरूरत नहीं होती है। तुम सभी पर अविश्वास करने लग जाते हो।

ख-          अगर प्राचीनकाल के युग को देखें तो लोग बहुत विश्वासी थे। श्रद्धा और विश्वास तो मनुष्य का स्वाभाविक गुण था,तब उसे विकसित करने की आवश्यकता नहीं होती थी।लोगों में प्रेम का सम्बन्ध गहरा था इसलिए लोग श्रद्धावान थे।
 
ग-          लेकिन आधुनिक समय में प्रेम विलुप्त होता जा रहा है। बच्चे उन परिवारों में जन्म लेते हैं जहॉ माता-पिता में प्रेम नहीं है। बच्चे का जन्म होने पर माता उसकी देख-भाल नहीं करती है। वह उस बच्चे की फिक्र नहीं करती है, इसलिए कि बच्चे शोर शराबा करके उनके जीवन में बाधा उत्पन्न करते हैं। इसीलए वे बच्चों से दूर रहना चाहती है। जब बच्चे का जन्म होता है तो वे स्त्रियॉ अपने जीवन में दुर्घटना मानती हैं और उनका बच्चों के प्रति एक गहरा नकारात्मक दृष्टिकोंण बन जाता है। इसलिए वह बच्चा अपनी मॉ से यही नकारात्मक दृष्टिकोंण प्राप्त करता है,जिससे वह अपनी मॉ पर भी विश्वास नहीं कर सकता है। उसके मूल में श्रद्धा ही खो गई। मॉ ने मुझे मारने का प्रयास किया? तो फिर विश्वास किससे किया जाय? उसे अब यह संसार केवल शत्रुतापूर्ण ही लगता है। इसलिए इस संसार में प्रत्येक को कडा संघर्ष करना होता है,वही जीवित रह सकता है। वही योग्य और शक्तिशाली बन सकता है।
 

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