प्रेम आत्मॉ का पोषक है
1-प्रेम की नीव-
अगर नाव का वजन अधिक है तो वह डूब जायेगी,तैरेगी नहीं, इसलिए प्रयास करें। प्रेम की नाव में बैठकर वही व्यक्ति पार हो सकता है जिसमें कोमलता हो,गीत और नृत्य का उत्सव आनन्द के रूप में हो। इसलिए मिट्टी की तरह कोमल बन जाओ, इसके लिए अपने ह्दय से सभी कठोर पत्थरों को छॉनकर बाहर फेंक दो। लेकिन होता क्या है कि हम उल्टा करते हैं,हम संदेह और अविश्वास एकत्र करके अपनी ही जमीन को पथरीला बनाकर नष्ट कर देते हैं।
जो प्रेमी एकाग्रता से प्रेम करता है,वही सत्य को उपलव्ध हो सकता है।क्योंकि अमृत पाने के लिए ह्दय रूपी शीरे में प्रेम के कृत्यों को मिलाकर और उसे आग पर रखकर मथना होता है।
2-प्रेम का अहसास -
3-प्रेम सिखाया नहीं जाता-
ऐसे व्यक्ति विरले ही मिलेंगे जो पूर्णतः परमात्मॉ के प्रेम में डूबा हो,क्योंकि प्रेम करना सिखाया नहीं जा सकता,और न सीखा जा सकता है बल्कि उसमें डूबा जा सकता है। और न कोई सिखा सकता है,बल्कि इसके लिये प्रेमी के निकट सानिध्य में रहना होगा। प्रार्थना कैसे की जाय इसके लिए निरीक्षण करते हुये और अनुभव करते हुये उसके स्तित्व के होने का स्वाद लेते हुये ही तुम सीख सकते हो,फिर तुम्हारे अन्दर एक सहज स्वाभाविक नूतन दृष्टि का उदय होगा।
4-प्रेम की प्रामाणिकता-
परमात्मॉ तुम्हारे अन्दर पहले ही से गहराई में बैठा हुआ है,भले ही तुम्हैं इस बात की खबर न हो,तुम्हारे सिर और ह्दय से यह एभी बहुत दूर है,अपने सिर को जरा इसके निकट ले जाना होगा। अगर तुम देख सकते हो तो तुम्हारे अन्दर देवता,दानव,और मनुष्यों का संसार बसा है,यह कोई नईं बात नहीं है ये तो पहले ही से वहॉ विराजमान हैं। लेकिन जो प्रेमी होते हैं,बाउले होते हैं उनमें समर्पण की भावना देखने लायक होती है, वे तो अपनी खबर स्वयं देते रहते हैं, उनका प्रेमाश्रु ही उसका प्रमॉण है,उनका रोना,विलखना,व्याकुल होना ही इसका प्रमॉण है। य़दि तुम उनके सम्पर्क में हो तो तुम कभी भी उनसे नहीं पूछोगे कि परमात्मॉ अस्तित्व में है या नहीं। उन प्रेमियों की यह विलख होती है कि यदि पहली ही दृष्टि में मुझे उनके दर्शन हो जाते हैं तो फिर में अपने नयनों को कभी खोलूंगा ही नहीं। बस अपने गीत में वे गाये चले जाते हैं,प्रार्थना करते चले जाते हैं,उनका गीत प्रामॉणिक और सच्चा होता है। प्रार्थना इतनी मर्मभेदी होती है,कि विना परमात्मा के यह सम्भव नहीं है।प्रेम के रास्ते में परमात्मा ही इसका प्रमाण है।
5-प्रेमी के लिए मृत्यु का रहस्य खुल जाता है-
प्रेम इस बात को जानता है कि मृत्यु क्या होती है,वह तो यही जानता है कि मृत्यु होती ही नहीं है।मृत्यु झूठ है। क्योंकि प्रेमी अपने प्रेम में पहले ही मर जाता है। और वह मरता है परमात्मॉ के प्रेम में,अपने प्रीतम् के प्रेम में।वह पूरी तरह से, बिना शर्त अपना समर्पण कर देता है। लेकिन मरकर भी वह समग्रता से जीता है। यदि तुमने भी समर्पण को ठीक ढंग से जाना होता तो तुमन् भी अपना बलिदान कर दिया होता। समर्पण का अर्थ है पहले ही मरना। समर्पण में कोई समस्या है ही नहीं,तुम समर्पित हो, लेकिन अगर सोचते हो कि तुम बलिदान देने जा रहे हो तो,यह समर्पण नहीं है,इसका मतलव तुमने कभी समर्पण किया ही नहीं।
एक प्रेमी ही जानता है कि बलिदान करना जैसा कुछ भी नहीं है।जब तुम समर्पित हो जाते हो तो तुम्हारे अहंकार के सम्बन्ध में तुम मृत हो जाते हो। फिर जो कुछ भी घटता है,गहन
कृतज्ञता के साथ उसे स्वीकार भी करते हो।
एक प्रेमी अपने प्रेम के द्वारा पहले ही मृत्यु की ओर गतिशील हो जाता है। उनके सामने दो मृत्यु घटित होती हैं,एक मत्यु होती है जीवन के अंत में और दूसरी मृत्यु जीवन और मृत्यु के मध्य घट सकती है,यह प्रेम की मृत्यु है, प्रेम में मरना।
जो व्यक्ति प्रेम में मरता है,फिर उसकी मृत्यु कभी होती ही नहीं है। फिर उसके लिए सभी तरह की मृत्यु का अंत हो जाता है। वह भली भॉति जान लेता है कि केवल अहंकार की ही मृत्यु होती है। यदि तुम अहंकार छोडते हो तो,तुम अमर हो जाते हो। समर्पण से तो यह तट दूसरे तट में ही बदल जाता है,बल्कि यह संसार दूसरा ही संसार बन जाता है।
6-प्रेम से जीवन का विकास-
एक व्यक्ति ने गमले में एक चीड का छोटा सा पौधा रोपा,देखा कि पौधा धीरे-धीरे बडा होता गया,जैसे ही पौधै बडा हुआ वैसे ही पौधा अपनी जडों को व्यवस्थित करता गया,जब उस व्यक्ति की मृत्यु हुई तो उसके पुत्र ने इसकी देखभाल की,इस तरह से पन्द्रह पीढियॉ गुजर गई,आज भी वह वृक्ष खडा है,वह वृक्ष कभी उस गमले से अलग नहीं रहा,पॉच सौ वर्षों बाद भी वह वृक्ष अठ्ठारह इंच्च से अधिक विकसित नहीं हुआ।यह छोटा सा वृक्ष सबको चीख-चीख कर चेतावनी देता है। ठीक इसी प्रकार अपने मन और आत्मॉ को भी कतर कर छोटा किया जा सकता है।
यदि तुम अपनी जडों को अपने जीवन में विकसित नहीं करते,और जडों को विकसित करते हुये उसे प्रेम और विश्वास में बदलने नहीं देते हो तो तुम बौने हो जाओगे। तुम कभी आधार मनुष्य नहीं बन सकोगे।
तुम्हें इस बात का ध्यान रखना होगा कि-विकसित होते हुये गहराइयों की ओर बढना है, तुम्हारी जडें विकसित होती हुई गहराई में पहुंचेंगी। तुम्हारी शाखाएं विकसित होकर ऊंचाइयों की ओर बढेंगी।इसमें गहराई और ऊंचाई दोनों साथ-साथ बढती है।
इस पृथ्वी में रहते हुये जितनी गहराई में तुम जाते हो,उतने ही ऊंचे आकाश की ओर भी जाते हो। इस तट की जितनी अधिक गहराई में तुम जाते हो,दूसरे तट के और अधिक निकट पहुंच जाते हो।
7-प्रेम आत्मॉ का पोषक तत्व है-
जीवन से प्रेम करो, तुम्हारे चारों ओर जो कुछ भी है,उससे प्रेम करो,अपनी जडों को जितनी अधिक दूरी तक फैला सकते हो,फैलाओ।फिर तुम परमात्मॉ के ही चरण स्पर्श करना शुरू कर दोगे।तुम्हारे श्रद्धा सुमन दिव्य चरणों पर वरसना शुरू हो जायेगा।वरना तुम बौनें होकर रह जाओगे।
जीवन में प्रेम करना अनिवार्य है,यही तो आत्मॉ का एक मात्र पोषक तत्व है।जिस प्रकार हमारा शरीर भोजन करने से जीवित रह सकता है,उसी प्रकार हमारी आत्मॉ का अस्तित्व प्रेम से ही सम्भव है। यह केवल शव्द मात्र बनकर न रहें बल्कि इसे अपना गहरा अनुभव बनने दो। प्रेमियों के लिए प्रेम ही पूजा है,प्रेम ही प्रार्थना है,और प्रेम ही परमात्मॉ है।
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