खुशी के पल नाच-गान के साथ
अ- कुछ लोग जिन्दगी के पलों को आनन्दमय बनाने के लिए नाच-गाने को महत्व देते हैं,वे कहते हैं कि अगर तुम नाच सकते हो तो तुम्हारे जीवन में कई अवरोध नष्ट हो जायेंगे। क्योंकि नृत्य में जो गति होती है वह सच्ची होती है,केवल उसमें इधर-उधर घूमना ही तो है। अगर आपने किसी को नृत्य में खोते हुये देखा होगा,तो उस समय उसके मन की दशा को समझ के देखें तो नाचते हुये वह घुल रहा है,तरल बन रहा है,वह ठोस से तरल बन रहा है,यही तरलता अवरोधों को पिघलाती है। इसलिए उन लोगों के लिए नृत्य करना भी एक योग है। इसी लिए वे दूसरों के साथ घण्टों नाच करते हैं। कुछ लोग तो रात्रि के स्वच्छ चॉदनी में नाचते हैं,वे चॉद को कृष्ण के प्रतीक के रूप में मानते हैं,वे कृष्ण को पूर्ण चन्द्र ही कहते हैं। फिर जहॉ पूर्ण चन्द्रमॉ है वहॉ वे नाचेंगे ही। यह नृत्य उनका किसी को दिखाने के लिए नहीं होता है बल्कि अपने आनन्द के लिए होता है। अगर कोई देखता है तो अलग बात है।

स- यह बात समझने वाली है कि -यदि कोई चीज कर्मकाण्ड या संस्कार बन जाती है तो उसे छोड देना चाहिए,क्योंकि अब वह व्यर्थ हो जाती है, कर्मकाण्ड का अर्थ है दुहराना। जैसे मुसलमान हर दिन एक विशेष ढंग से नमाज पढते हैं,यह एक संस्कार बन गया। इसी प्रकार ईसाई प्रार्थना करते हैं,एक ही प्रार्थना बार-बार दुहराते हैं,वे उसे करने में इतने अभ्यस्थ हो गये हैं कि उसमें किसी चेतना की कोई आवश्यकता ही नहीं पडती,बस वे औपचारिकता के रूप में करते हैं,वे इन शव्दों को कई बार दुहरा चुके हैं। उनके लिए वह एक मृत संस्कार मात्र रह गया है, इसलिए अब उन्हैं छोड देना ही उचित है।
2-हल पल नयॉ हो-
आनन्द तब है जब हर पल नयॉ हो। प्रत्येक क्षण प्रार्थना का नयॉ रूप उठने दे,अतीत को ढोते चले जाने की आवश्यकता नहीं है,क्या हम अपने परमात्मा से सीधे बात-चीत नहीं कर सकते हैं क्या? एक ही बात को बार-बार दुहराने की आवश्यकता क्या है? क्योंकि आज तो कल से भिन्न है,इसलिए प्रार्थना भी नईं होनी चाहिए। उतनी ही नईं,जितनी कि सुबह का उगता हुआ सूरज और नईं ओस की बूंद। कुछ इस तरह से कहना होगा जो जो हमारे ह्दय में उमड रहा हो,और यदि उसमें कुछ भी नहीं तो गहन मौन में झुक कर रहें। क्यों वह सब कुछ जानता है,मौन की यह प्रार्थना वह समझ जायेगा। अगर कभी नाचतो हो तो नाचें,उस दिन की प्रार्थना वहीं होगी। अगर गीत को गाना चाहो तो गा लो मगर किसी गीत को दुहराना नहीं,जो तुम्हारे मन से निकले वही गाना। गीत को कंठ से फूटने दो,लय व छंद की बात भूल जाओ,परमात्मां का इससे कोई मतलव नहीं,वह तो शव्दों की भाषा जानता है जिनका प्रयोग तुम कर रहे हो,उसका सम्बन्ध तो तुम्हारे ह्दय से हैं,तुम्हारे इरादों और भावों से है।
3- परम विश्राम की अवस्था- गान में आनन्द लेने वाले सहज और स्वाभाविक प्रवृत्ति के होते हैं। वे उस समय परम विश्राम की स्थिति में होते हैं,जब वे नृत्य को अपने से होने देते हैं,गीत को वे स्वयं अपने से उमगने देते हैं,इसी लिए वे लोग जैसे पागलों की भॉति हरकत करते हैं। क्योंकि वे कभी-कभी परमात्मां से झगडते भी हैं।किसी दिन वे परमात्मां से नाराज होकर कहेंगे, कि- नहीं आज मैं तेरी प्रार्थना करने नहीं जा रहा हूं,तूने मेरे लिए क्या किया है?मैं तुमसे बहुत नाराज हूं।यह प्रार्थना तो बहुत सुन्दर है,यह सुनी जायेगी और स्तित्व के केन्द्र तक पहुंचेगी। होता क्या है,जब तुम प्रेम करते हो तभी तो कभी-कभी खीज उठती है,तभी तो नाराज होते हो।कभी-कभी शिकायतें करनें लगते हो। येसे लोग तो अपने आप को परमात्मां के हाथों में छोड देते हैं इसीलिए ये लोग कभी असहाय और कभी भिखारियों की तरह बनते है। ठीक है यदि तू मेरी परीक्षा लेना चाहता है तो ले,यदि तू मुझे दुःख और पीडा देना चाहता है तो दे ,जितना अधिक मैं सह सकता हूं, सहूंगा। लेकिन यह बात मात्र बात ही नहीं है,यह तो उसके प्रियतम् से संवाद है।
4- परमात्मॉ तक पहुंचने की तैयारी करो यह भी कि वह किसी ग्रंथ का बचन नहीं दुहरा रहा हूं,यह तो अपना शास्त्र है जो कि स्वयं गढा हुआ है। यदि गीत उधार लिया हुआ है तो तुम उससे जी नहीं सकते हो,उधार लिया हुआ तो कोई भी गा सकता है,या नाच सकता है। उसे तो स्वयं अन्दर से प्रकट होने दो? इसके लिए तुम अपने अपने आप को तैयार करो ?तैयार होने का मतलव किसी दूसरे आध्यात्मिक लोगों के समान तैयार नहीं होना है,क्योंकि वे जीवन में प्रशन्नता को छोड देने,जीवन के विरुद्ध चलने,प्रेम और उत्सव के प्रति लगाव को नष्ट करने का कार्य करते हैं। वे तो स्वयं ही अपने शरीर का उत्पीडन करते हैं। स्वयं को सताते हैं,वे अपने लिए दुखों और कष्टों को सृजित करते हैं। तुम्हैं ऐसा तैयार थोडे ही नहीं होना है!बल्कि जीवन प्रेमी होना चाहिए। इस क्षण का आनन्द लो,जिससे तुम अगले क्षण को तैयार हो सको। इस क्षण को स्वर्णिम बना लो,इससे अगले पलों की श्रृंखला बन जायेगी। फिर तुम स्वर्ण पात्र जैसे बन जाओगे ।
5-स्वर्ण पात्र बनो परमात्मा का मिलन होगा-
यदि तुम परमात्मा को आमंत्रित करते हैं तो पहले तुम्हैं स्वर्ण पात्र बनना होगा,जिससे वह तुम्हारे पात्र में उडेल सकें। प्रशन्नचित्त और हर्षित रहो,जिससे तुम आनन्दित बन सको।उत्सव और आनन्द मनाओ, तुम तो इस तट पर हो, दूसरे तट पर वे लोग हैं जो स्वयं को सताने वाले हैं।तुम जितना अधिक उत्सवमय होंगे,दूसरा तट उतना ही तुम्हारे नजदीक आता जायेगा। लेकिन यदि तुम उदास दुखी,उत्पीडक,और स्वयं को सताने वाले होते हैं तो दूसरा तट तुमसे दूर होता जायेगा। तुम्हारा उत्सव सर्वोच्च शिखर पर होता है तो दूसरा तट तुम्हारे साथ मिल जाता है,फिर तुम इस संसार में रहते ही नहीं हो,तुम तो परमात्मॉ में रहते हो।
6-परमात्मा हमारा अतिथि है-
परमात्मॉ को अतिथि के रूप में आमंत्रित करना सीखो!तुम उसका मेजवान बनना चाहते हो,तो तुम्हैं फिर स्वर्ग के राज्य में रहने के ढंग भी सीखना होगा। लेकिन अभी तुम्हैं इस तरह रहना होगा कि यह क्षण स्वर्ग बन जाय, तभी तो तुम परमात्मां को आमंत्रित कर सकते हो। लेकिन होता क्या है कि कुछ लोग हैं कि जो बिना विचार किये हुये उसे आमंत्रित किये चले जाते हैं। उन्हैं इस बात का खयाल नहीं होता है कि अगर वह आता है तो क्या मैं तैयार भी हूं कि नहीं? यदि वह आता है तो तुम उसका स्वागत करने के लिए तैयार हो?यदि वह अपने को तुममें उडेलता है,तो तुम्हारा स्वर्ण पात्र पहले से तैयार है? यदि नहीं तो उसकी दिव्यता तुम कैसे इकठ्ठा करोगे? उसको ग्रहण करने के लिए तुम्हारा ह्दय पात्र पहले ही से खुला हुआ है कि नहीं ? उन लोगों ने क्या इस बात पर विचार किया?
7-परमात्मॉ का परिचय-
कई लोग प्रश्न करते हैं कि परमात्मॉ कहॉ हैं? क्या परमात्मॉ ने अपने आप को यह सिद्ध करना है कि मैं यहॉ हूं? और यह भी सही है कि यदि वह अपनी उपस्थिति को सिद्ध नहीं करते हैं तो लोग विश्वास भी कैसे करेंगे? परमात्मॉ तो तुम्हारे चारों ओर है,तुम्हारे अन्दर ही है,तुम उसके विना हो ही नहीं सकते हो,उसके विना तो और कुछ है ही नहीं। तुम ही तो हो जो पहले से तैयार नहीं हो,तुम स्वर्णपात बने बिना चूक रहे हो,तुम्हारे पास उसको देखने की दृष्टि है ही नहीं है,उसे सुनने के लिए तुम्हारे पास कान ही नहीं हैं,उसको स्पर्श करने के लिए तुम्हारे पास वे हाथ हैं ही नहीं,इसलिए कि तुम तैयार ही नहीं हो। तुम तो उसका स्वागत उसी से कर सकते हो,जो तुम्हारे पास पहले से ही है। लेकिन एक बार तुम तैयार हो जाओ तो तुरन्त विना एक भी क्षण के अन्तराल के वह तुरन्त प्रकट हो जाता है, और घटना घट जाती है,क्योंकि वह पहले ही से है,बस तुम्हारी तैयारी ही बाकी थी।
8-परमात्मा की खोज का रास्ता-
होता क्या है कि जो लोग परमात्मां की खोज में निकलते हैं, वे उतने ही दूर तक चलना चाहते हैं जहॉ तक उनको परमात्मॉ न दिखे, ताकि वे संसार को बता सकें कि उन्होंने परमात्मॉ को देखा है, लेकिन वे काफी दूर तक चलनॉ ही नहीं चाहते हैं,क्योंकि यदि वे परमात्मॉ में बहुत दूर तक आगे बढ गये तो,फिर वे वापस नहीं लौट सकते । क्योंकि यदि गहरे उतर गये तो वहॉ एक विन्दु ऐसा आता है,जहॉ से वे वापस नहीं लौट सकते हो,इसलिए वे केवल थोडी ही दूर तक चलनॉ चाहते है,जिससे वे संसार में वापस लौटकर लोगों से यह कह सके कि हमने भी परमात्मॉ को देखा है। इसलिए भी कि उनकी पूरी दिलचस्पी इस संसार में है,जहॉ पर कि उनके पास एक महलनुमॉ विशाल कोठी है,एक अच्छी खासी रकम जमॉ है और वे अपने घर में ही परमात्मॉ को भी प्राप्त कर सकते हैं। 9-परमात्मॉ तो दिखावे के बाहर है तुम जब मंदिर में जाते हो तो, जाकर भी तुम वहॉ नहीं जाते हो,तुम्हारा मन तो बाजार की ओर होता है। क्या तुमने कभी ऐसा महशूस किया है? यदि तुम मंदिर में अकेले होते हो,तो तुम्हैं प्रार्थना करने में अधिक आनन्द नहीं आता है। लेकिन यदि मंदर में बहुत सारे लोग होते हैं और वे तुम्हैं देख रहे होते हैं तो तब तुममें बहुत उत्साह होता है,तुम अपने को उच्च समझते हो,यह अपनी प्रार्थना के कारण नहीं बल्कि केवल इसलिए कि वहॉ बहुत सारे लोग तुम्हैं देख रहे होते हैं। वे सोचते हैं कि तुम कितने अधिक धार्मिक, सदाचारी और परमात्मॉ के निकट हो। यह भी कि तुम चाहोगे कि लोग तुमसे ईर्ष्या का अनुभव करें। यही तो तुम्हारी प्रकृति है। लेकिन तुम्हारी यह प्रस्तुति लोगों के सामने उन्हीं के लिए है,परमात्मॉ तो तुमसे बाहर है,तुम्हारा तो उनसे कोई भी सम्पर्क नहीं हो पा रहा है । उनसे तो अकेले ही सम्पर्क हो सकता है। तुम्हैं तो किसी भी व्यक्ति के आगे कुछ भी सिद्ध नहीं करना है।
10-परमात्मॉ रूपी बीज पुष्प बनेगा-
तुम्हारे पास जो बीज है उसे तुम अपने साथ लिए चल रहे हो,तुम्हारे अस्तित्व के गहरे केन्द्र में उस खजाने का बीज पहले ही से प्रतीक्षा में है,उन अवरोधों के हटने की,जिससे वह चारों ओर फैलकर विकसित हो सके।तुम्हीं वह बीज हो,और तुम्हारा बीज ही विकसित होकर परमात्मॉ का पुष्प बनने जा रहा है। जैसे ही तुम्हारा होश जागता और सोता है,तुम्हारे अन्दर का कमल भी खिलता और बंद हो जाता है। जैसे कि सूरज के आने पर कमल खिलता है और अस्त होने पर बंद हो जाता है। योगियों के अनुसार ये सात चक्रों में होते हैं,जिन्हैं सात कमल के पुष्प कहते हैं। जिनमें सबसे नीचे का कमल सेक्स का कमल है। जब तुम वहीं बने रहते हो तो अमांवस की काली रात होती है। और सबसे अन्तिम सातवॉ कमल है सहस्रार का,जहॉ चन्द्रमॉ पूर्ण होकर चमकता है। सेक्स से प्रेम की ओर गतिशील होकर सहस्रार तक पहुंचा है,उसका गुंण प्रेम है,सभी कार्य प्रेमपूर्ण होते हैं। लेकिन जो सबसे नीचे के चक्र पर बना रहता है,उसके गुण या कार्य तो सेक्स से सम्बन्धित होते हैं। कमल का चक्र खिलने के लिए अपने ह्दय के दागों को धोना होगा,ह्दय से संदेहों को हटाना होगा ह्दय से अविश्वास को हटाना होगा । एक बार यदि विश्वास और श्रद्धा पूर्णतः शुद्ध और साफ हो जाय तो फिर कमल चक्र खिल उठता है।
11-कठोर ह्दय में कमल का फूल नहीं खिलेगा-
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