जीवन की दिशा
1-ध्यान में अपने अन्दर उतरना सीखें-
हमारा मन भी अजीवोगरीव ढंग से कार्य करता है,यदि आप ध्यान करते हैं तो आप दूसरों के प्रति यह नहीं देखेगे कि दूसरों में ध्यान कैसा घटित हो रहा है। यदि आपका ध्यान सच्चा है तो आप अपने ही अन्दर उतरेंगे।
एक शिष्य अपने गुरु के साथ बारह वर्षों तक रहा,और हर दिन अपने गुरु के पास आता था,आते समय उसे एक बडे हाल से होकर आना होता था। एक दिन गुर ने शिष्य से कहा तुम जिस बडे कक्ष से होकर आते हो उसमें अलमारी के ऊपर एक किताब है असे उठा लाओ। शिष्य ने कहा ठीक है मैं चला तो जाऊंगा लेकिन वहॉ मैंने कभी कोई अलमारी नहीं देखी। गुरु ने कहा तुम मुझसे मिलने हमेशा आते हो और वह भी बारह वर्षों से, और हमेशा उसी हॉल से आते हो,क्या तुमने वहॉ कोई अलमारी नहीं देखी? शिष्य ने उत्तर दिया कि मुझे आपके निकट आना होता था । मैं यहॉ यह देखने नहीं आया हूं कि उस बडे कक्ष में क्या है,वहॉ कोई बडी अलमारी भी है कि नहीं,उसमें कोई किताब भी है कि नहीं।मेरा मकसद तो सिर्फ आप हैं,मेरा पूरा अस्तित्व आपके लिए है। मैं केवल आपके लिए ही खुला हुआ हूं। मैं तो आता हूं और उसे खोजता हूं। गुरु का कहना था ठीक है अब उस किताब की कोई जरूरत नहीं है।
सच तो यह था कि वहॉ न तो कोई अलमारी थी और न कोई किताब। यह तो सिर्फ एक परीक्षा थी,यह देखने के लिए कि तुम ध्यान से डिगे तो नहीं !बस मैं खुश हूं कि तुम्हारा मन कई दिशाओं में नहीं भाग रहा है।
2- सौभाग्यशाली की बात का विचार ईर्ष्या को जन्म देता है-
होता क्या है कि ध्यान में बैठने पर भी हमारा मन कई दिशाओं में चले जाता है,,जबकि हमें किसी व्यक्ति से क्या मतलव ?लेकिन हम नईं-नईं जटिलताएं और मुसीबतों को सृजित करते रहते है। होता क्या है कि कुछ लोग एक दूसरे की अच्छी बुरी आदतों के लिए ईर्ष्या करते हैं,ध्यान का उनपर कोई फर्क नहीं पडता है। अगर वे दूसरे को भाग्यशाली मानते हैं तो यह तो मन में चलता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति दूसरे को भाग्यशाली होने के बारे में सोचता है तो क्या उसे ईर्ष्यालु नहीं कहेंगे? बिल्कुल उसे ईर्ष्यालु कहेंगे।जबकि वे इसे एक विचार मानते हैं।यह तो दोहरा व्यवहार हो गया । किसी को भाग्यशाली मानना निष्क्रिय ईर्ष्या है। हॉ हो सकता है ईर्ष्या अधिक मजबूत हो और हमारा यह विचार थोडा निष्क्रिय हो सकता है, लेकिन किसी के सौभाग्यशाली होने का विचार किसी भी क्षण ईर्ष्या बन सकता है,यह विचार विकसित होती हुई ईर्ष्या है। इसे मन से निकाल देना चाहिए।
फिर प्रश्न उठता है मन से ऐसे विचारों को कैसे निकाला जाय,इसके लिए सबसे पहले सौभाग्यशाली होने का विचार त्याग देना होगा,अन्यथा कोई सम्भावना नहीं है,क्योंकि जहॉ ऐसा विचार और ईर्ष्या होगी,वहॉ प्रेम भी नहीं हो सकता! हमारी खोज एक निश्चित तरह की सत्ता पाने की होगी। हम प्रेम के नाम पर केवल अपने अहंकार को तृप्त करने का प्रयास करते हैं। हमें इसे हटाना होगा। क्योंकि मन में प्रेम तभी आता है जब मन के सभी नकारात्मक तत्व हट जॉय।
3-व्यवहार की उपयोगिता-
गुरू जी अपने शिष्य से कहते हैं कि व्यवहार में तुम मुझे वुरा समझते होंगे,क्योंकि मैं अपने शिष्यों के प्रति कठोर रहता हूं, इस बात को मैं समझता हूं कि मैं कठोर हूं,लेकिन मुझे कठोर होना पडता है। तुम जितना मेरे निकट आते हो,मुझे उतना ही अधिक कठोर पाओगे। लेकिन तुम एक दर्शक की भॉति सामने आते हो तो मुझे विनम्र होना होता है। मेरे निकट आना,अपनी मृत्यु के निकट समझो? प्रेम मृत्यु ही है।केवल तभी तुम मेरे निकट आ सकते हो।
4-जीने के लिए स्वयं को मिटाना होगा-
एक दार्शनिक ने अपने जीवन को अर्थहीन होने का अनुभव कर अपने को फॉसी लगाकर आत्महत्या करने का निश्चय किया,तभी दूसरे कमरे से उसका मित्र आया और उसने देखा कि अपने कमर के चारों ओर रस्सी बॉधे हुये वह वहॉ खडा है। मित्र ने उसे पूछा कि तुम आखिर क्या करने जा रहे हो ?दार्शनिक ने कहा कि मैं स्वयं को फॉसी लगाकर अपना जीवन समाप्त करने जा रहा हूं। उसके मित्र ने पूछा- लेकिन इस रस्सी को कमर में क्यों बॉधे हो? दार्शनिक का उत्तर था कि जब मैने रस्सी को अपनी गर्दन के चारों ओर लपेटा तो मेरी सॉस घुटने लगी।
गुरु जी ने कहा कि-दार्शनिक की भॉति यह प्रेम भी गर्दन के चारों ओर बंधी रस्सी के समान है,इससे तुम्हारी दम घुटने लगेगा,यह तुम्हैं मार देगा। यही आध्यात्मिक आत्म हत्या है,जो मरने से पहले की गई तैयारी है। वही फिर से नयॉ जन्म लेते हैं,और वे ही मेरे निकट आ पाते हैं। मेरे पास करने के लिए कुछ भी नहीं है,मैं तो हर एक के लिए मैजूद हूं। तुम्हारे आने के लिए मेरा तो हर समय निमंत्रण रहता है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम ईर्ष्यालु बनकर आते हो या अन्य. गलत कारणों से, तुम्हारी रस्सी कमर के चारों ओर बंधी रहेगी,और फिर तुम कहोगे कि मैं इसे गर्दन पर नहीं रख सकता!क्योंकि इससे दम घुट रहा है।जो लोग मेरे निकट हैं,वे इसलिए हैं,क्योंकि उन्होंने अपने को मिटा दिया।यह बहुत कठोर कार्य है।
तुम बहाना बना सकते हो कि तुमने अपने आप को मिटा दिया,या तो विनम्र होने का बहाना बना सकते हो,अहंकार हटाने का बहाना बना सकते हो?लेकिन बहानों से कुछ भी होने वाला नहीं है। सत्य देर सबेर सामने आ ही जाता है। इसलिए किसी को भी गलत कार्यों सें दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए।
5-गलत कामनाओं के प्रश्न न पूछें-
एक गरीब युवक एक धनी युवती से प्रेम करता था, एक दिन उस युवक ने उस युवती से हिम्मत बॉधते हुये कह दिया कि तुम तो बहुत धनी हो। युवती ने कहा-हॉ तो मेरे पास दस लाख रुपये हैं। लेकिन मैं तो गरीब हूं, युवक ने कहा । क्या तुम मुझसे शादी करोगी?नहीं। मेरा भी यही खयाल था कि तुम नहीं ही कहोगी। लेकिन जब तुम्हैं यह पता था तो यह प्रश्न पूछा ही क्यों? युवक ने उत्तर दिया,यह देखने के लिए कि एक मनुष्य को कैसा अनुभव होता है जब दस लाख रुपये खोता है।
इसलिए इस प्रकार के प्रश्न पूछना ही नहीं चाहिए,जो गलत कामनाओं को जन्म देते हैं। इसके लिए पहले निरीक्षण करो,फिर बहुत सजग बनो। जितनी स्पष्टता से हो उन्हैं देखो और समझो। अपने शब्दों को आड में मत छिपाओ। अपनी ईर्ष्या को अच्छे विचार कहकर मत पुकारो।स्वयं अपने लिए ही कठोर बनना होगा ।गलत प्रश्न पूछोगे तो समय व्यर्थ नष्ट होगा।
एक शिष्य अपने गुरु के साथ बारह वर्षों तक रहा,और हर दिन अपने गुरु के पास आता था,आते समय उसे एक बडे हाल से होकर आना होता था। एक दिन गुर ने शिष्य से कहा तुम जिस बडे कक्ष से होकर आते हो उसमें अलमारी के ऊपर एक किताब है असे उठा लाओ। शिष्य ने कहा ठीक है मैं चला तो जाऊंगा लेकिन वहॉ मैंने कभी कोई अलमारी नहीं देखी। गुरु ने कहा तुम मुझसे मिलने हमेशा आते हो और वह भी बारह वर्षों से, और हमेशा उसी हॉल से आते हो,क्या तुमने वहॉ कोई अलमारी नहीं देखी? शिष्य ने उत्तर दिया कि मुझे आपके निकट आना होता था । मैं यहॉ यह देखने नहीं आया हूं कि उस बडे कक्ष में क्या है,वहॉ कोई बडी अलमारी भी है कि नहीं,उसमें कोई किताब भी है कि नहीं।मेरा मकसद तो सिर्फ आप हैं,मेरा पूरा अस्तित्व आपके लिए है। मैं केवल आपके लिए ही खुला हुआ हूं। मैं तो आता हूं और उसे खोजता हूं। गुरु का कहना था ठीक है अब उस किताब की कोई जरूरत नहीं है।
सच तो यह था कि वहॉ न तो कोई अलमारी थी और न कोई किताब। यह तो सिर्फ एक परीक्षा थी,यह देखने के लिए कि तुम ध्यान से डिगे तो नहीं !बस मैं खुश हूं कि तुम्हारा मन कई दिशाओं में नहीं भाग रहा है।
2- सौभाग्यशाली की बात का विचार ईर्ष्या को जन्म देता है-
होता क्या है कि ध्यान में बैठने पर भी हमारा मन कई दिशाओं में चले जाता है,,जबकि हमें किसी व्यक्ति से क्या मतलव ?लेकिन हम नईं-नईं जटिलताएं और मुसीबतों को सृजित करते रहते है। होता क्या है कि कुछ लोग एक दूसरे की अच्छी बुरी आदतों के लिए ईर्ष्या करते हैं,ध्यान का उनपर कोई फर्क नहीं पडता है। अगर वे दूसरे को भाग्यशाली मानते हैं तो यह तो मन में चलता रहता है। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति दूसरे को भाग्यशाली होने के बारे में सोचता है तो क्या उसे ईर्ष्यालु नहीं कहेंगे? बिल्कुल उसे ईर्ष्यालु कहेंगे।जबकि वे इसे एक विचार मानते हैं।यह तो दोहरा व्यवहार हो गया । किसी को भाग्यशाली मानना निष्क्रिय ईर्ष्या है। हॉ हो सकता है ईर्ष्या अधिक मजबूत हो और हमारा यह विचार थोडा निष्क्रिय हो सकता है, लेकिन किसी के सौभाग्यशाली होने का विचार किसी भी क्षण ईर्ष्या बन सकता है,यह विचार विकसित होती हुई ईर्ष्या है। इसे मन से निकाल देना चाहिए।
फिर प्रश्न उठता है मन से ऐसे विचारों को कैसे निकाला जाय,इसके लिए सबसे पहले सौभाग्यशाली होने का विचार त्याग देना होगा,अन्यथा कोई सम्भावना नहीं है,क्योंकि जहॉ ऐसा विचार और ईर्ष्या होगी,वहॉ प्रेम भी नहीं हो सकता! हमारी खोज एक निश्चित तरह की सत्ता पाने की होगी। हम प्रेम के नाम पर केवल अपने अहंकार को तृप्त करने का प्रयास करते हैं। हमें इसे हटाना होगा। क्योंकि मन में प्रेम तभी आता है जब मन के सभी नकारात्मक तत्व हट जॉय।
3-व्यवहार की उपयोगिता-
गुरू जी अपने शिष्य से कहते हैं कि व्यवहार में तुम मुझे वुरा समझते होंगे,क्योंकि मैं अपने शिष्यों के प्रति कठोर रहता हूं, इस बात को मैं समझता हूं कि मैं कठोर हूं,लेकिन मुझे कठोर होना पडता है। तुम जितना मेरे निकट आते हो,मुझे उतना ही अधिक कठोर पाओगे। लेकिन तुम एक दर्शक की भॉति सामने आते हो तो मुझे विनम्र होना होता है। मेरे निकट आना,अपनी मृत्यु के निकट समझो? प्रेम मृत्यु ही है।केवल तभी तुम मेरे निकट आ सकते हो।
4-जीने के लिए स्वयं को मिटाना होगा-
एक दार्शनिक ने अपने जीवन को अर्थहीन होने का अनुभव कर अपने को फॉसी लगाकर आत्महत्या करने का निश्चय किया,तभी दूसरे कमरे से उसका मित्र आया और उसने देखा कि अपने कमर के चारों ओर रस्सी बॉधे हुये वह वहॉ खडा है। मित्र ने उसे पूछा कि तुम आखिर क्या करने जा रहे हो ?दार्शनिक ने कहा कि मैं स्वयं को फॉसी लगाकर अपना जीवन समाप्त करने जा रहा हूं। उसके मित्र ने पूछा- लेकिन इस रस्सी को कमर में क्यों बॉधे हो? दार्शनिक का उत्तर था कि जब मैने रस्सी को अपनी गर्दन के चारों ओर लपेटा तो मेरी सॉस घुटने लगी।
गुरु जी ने कहा कि-दार्शनिक की भॉति यह प्रेम भी गर्दन के चारों ओर बंधी रस्सी के समान है,इससे तुम्हारी दम घुटने लगेगा,यह तुम्हैं मार देगा। यही आध्यात्मिक आत्म हत्या है,जो मरने से पहले की गई तैयारी है। वही फिर से नयॉ जन्म लेते हैं,और वे ही मेरे निकट आ पाते हैं। मेरे पास करने के लिए कुछ भी नहीं है,मैं तो हर एक के लिए मैजूद हूं। तुम्हारे आने के लिए मेरा तो हर समय निमंत्रण रहता है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम ईर्ष्यालु बनकर आते हो या अन्य. गलत कारणों से, तुम्हारी रस्सी कमर के चारों ओर बंधी रहेगी,और फिर तुम कहोगे कि मैं इसे गर्दन पर नहीं रख सकता!क्योंकि इससे दम घुट रहा है।जो लोग मेरे निकट हैं,वे इसलिए हैं,क्योंकि उन्होंने अपने को मिटा दिया।यह बहुत कठोर कार्य है।
तुम बहाना बना सकते हो कि तुमने अपने आप को मिटा दिया,या तो विनम्र होने का बहाना बना सकते हो,अहंकार हटाने का बहाना बना सकते हो?लेकिन बहानों से कुछ भी होने वाला नहीं है। सत्य देर सबेर सामने आ ही जाता है। इसलिए किसी को भी गलत कार्यों सें दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए।
5-गलत कामनाओं के प्रश्न न पूछें-
एक गरीब युवक एक धनी युवती से प्रेम करता था, एक दिन उस युवक ने उस युवती से हिम्मत बॉधते हुये कह दिया कि तुम तो बहुत धनी हो। युवती ने कहा-हॉ तो मेरे पास दस लाख रुपये हैं। लेकिन मैं तो गरीब हूं, युवक ने कहा । क्या तुम मुझसे शादी करोगी?नहीं। मेरा भी यही खयाल था कि तुम नहीं ही कहोगी। लेकिन जब तुम्हैं यह पता था तो यह प्रश्न पूछा ही क्यों? युवक ने उत्तर दिया,यह देखने के लिए कि एक मनुष्य को कैसा अनुभव होता है जब दस लाख रुपये खोता है।
इसलिए इस प्रकार के प्रश्न पूछना ही नहीं चाहिए,जो गलत कामनाओं को जन्म देते हैं। इसके लिए पहले निरीक्षण करो,फिर बहुत सजग बनो। जितनी स्पष्टता से हो उन्हैं देखो और समझो। अपने शब्दों को आड में मत छिपाओ। अपनी ईर्ष्या को अच्छे विचार कहकर मत पुकारो।स्वयं अपने लिए ही कठोर बनना होगा ।गलत प्रश्न पूछोगे तो समय व्यर्थ नष्ट होगा।
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