मन की नकली यात्रा से मुक्ति का मार्ग


1-            अगर देखें तो जब तक विचार चल रहे हैं ,यही मन की यात्रा है और जब विचार रुक जाते हैं,तो लगता है हमारा मन विचारों की भीड से मुक्त हो गया। हम देखते हैं कि हमारे चारों ओर अब विचारों का कोई भी धुवॉ नहीं रह गया है। अगर हमारी दृष्टि सरल,निर्दोष और विचारों के प्रदूषण से मुक्त हो जाती है,तो यह मन की यात्रा नहीं है,बल्कि इसके अतरिक्त प्रत्येक वस्तु मन की यात्रा है। प्रेम भी मन की यात्रा में सम्मिलित नहीं है। क्योंकि गहरे प्रेम के क्षणों में विचार रुक जाते हैं। सोचने की प्रक्रिया रुक जाती है। या गहरे ध्यान में भी जब मौन के क्षण आते हैं,तो हम पूरी तरह से स्थिर हो जाते हैं,हम शॉत हो जाते हैं,फिर चेतना की ज्यौति स्थिर हो जाती है,विचार प्रक्रिया रुक जाती है। फिर हम मन की पकड से बाहर हो जाते हैं। अन्यथा हर चीज मन की यात्रा होगी।
 
 
 
2-           इस बात को हमें ध्यान में रखना होगा कि हर एक व्यक्ति को मन के पार जाना है,क्योंकि मन ही संसार है। जब हम सोचते हैं तो सत्य से चूकते जाते हैं। यदि एक बार विचार रुक जाते हैं तो हम सत्य के आमने-सामने होते हैं। लेकिन होता क्या है कि मन के पर्दे पर विचारों की फिल्म निरंतर चलती रहती है,जिससे सत्य धुंधला हो जाता है,जैसे कि हम लहरों से भरी झील में झॉक रहे हों। पूर्णिमॉ की रात है और झील सुन्दर और पूर्ण चन्द्रमॉ को प्रतिबिम्बित कर रही है,लेकिन झील में लहरें उठ रही हैं,जिससे चन्द्रमॉ की छवि हजारों खण्डों में विखर जाती है। जिससे हम पूर्ण चन्द्रमॉ को नहीं देख पाते हैं। झील में चारों ओर चन्द्रमॉ के बहुत सारे चॉदी जैसे शुभ्र स्वेत खण्ड फैले हुये प्रतीत होते हैं। लेकिन तभी हवा रुक जाती है,लहरें उठना बन्द हो जाती हैं और चन्द्रमॉ के सभी खण्ड एक शुभ्र पूर्ण चन्द्र के रूप में बदलना शुरू हो जाता है।वह चॉदी जैसी चमक जो झील में विखरी थी अब एक ही स्थान पर सघन हो गई है । पूरी झील विना लहरों के है,चन्द्रमॉ पूर्ण रूप से प्रतिबिम्बित होने लगता है।
            ठीक उसी प्रकार हमारा मन जब विचारों के साथ होता है,वैसे ही झील भी लहरों के साथ होती है,और मन जब विना विचारों के साथ होता है,वैसे ही झील बिना लहरों की होती है। परमात्मा हमारे अन्दर पूर्णतः तभी प्रतिबिम्बित होता है जब हमारे अन्दर विचारों की एक भी तरंग नहीं होती है। हमें परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाना होगा,सिर्फ करना यही होगा कि कैसे तरंग विहीन बन सकें,विचार शून्य बन सकें ।इसके लिए अपना सहयोग जरूरी है,निरंतर विचारों को नियंत्रित करने के लिए।
 
 
 
 
3-          इसमें तुम्हारी ही ऊर्जा कार्य करेगी। ठीक उसी भॉति जैसे साइकिल पर सवार व्यक्ति पैडल चलाये चला जाता है। यह उसी की ही तो ऊर्जा है जो साइकिल चलाता है। यदि वह पैडल चलाना बन्द कर दे तो कुछ देर बाद उसे रुक जाना होता है। इसलिए अपने विचारों को ऊर्जा देना बन्द कर दें,केवल विचारों को देखो और किसी भी तरह का सम्बन्ध उससे मत जोडो। इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि उन विचारों के पक्ष और विपक्ष में न सोचो,केवल एक निरीक्षण कर्ता बने रहो।
 
            मन को चलने दो,बस तुम्हैं एक किनारे खडे होकर उसे देखते रहना है,विना उसे प्रभावित हुये,जैसे कि मानो तुम्हारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
 
 
 
4-            हमारा मन विचारों का एक याता-यात है,इसे हमें अजमाकर देखना होगा ।इसके लिए हमें किसी व्यस्त सडक पर जहॉ भीड और यातायात सर्वाधिक हो,जाकर एक किनारे पर खडे होकर यातायात को देखते रहें,बहुत से लोग इधर से उधर आ जा रहे हैं,कई प्रकार के वाहन गुजर रहे हैं।हम एक किनारे पर खडे होकर देख रहे हैं। फिर आंखें बन्द कर अपने अन्दर झॉको,अपने मन के अन्दर भी विचारों का यातायात तेजी से इधर-उधर दौड रहे हैं।
 
           
 
5-            तुम सिर्फ निरीक्षण कर्ता बने रहो। फिर धीरे-धीरे देखोगे कि यातायात कम से कम होते जा रहा है,तुम देखोगे कि अब सडक खाली है.उससे होकर कोई भी पार नहीं जा रहा है। यह तुम्हारे लिए दुर्लभ क्षण होंगे,समाधि की पहली झलक तुम्हारे अन्दर प्रविष्ट हो जायेगी। हमारे सामने समाधि में बैठने के लिए तीन चरण होते हैं।
 
            पहला जब तुम झलकों तक पहुंचते हो,एक विचार आता है,तब वह चला जाता है,और दूसरा अभी तक आया नहीं। यहॉ पर दोनों के बीच कुछ अन्तराल होता है,इसी अवकाश में सत्य हमारे अन्दर गहराई से तीर की तरह प्रविष्ट होता है और मन की झील में खण्डित चन्द्रमॉ का प्रतिबिम्ब पूर्ण चन्द्रमॉ बन जाता है,यह प्रतिबिम्ब एक क्षण के लिए होता है,मगर उसकी झलक हमें दिखाई देती है।
 
            यह अन्तराल धीरे-धीरे बडे और लम्बे होते जाते हैं,जिससे हम सत्य को और स्पष्टता से समझ सकते हैं। सत्य की यही झलक तो हमें बदलती है। फिर हम वैसे ही नहीं रहते बल्कि हमारी दृष्टि हमारा ही सत्य बन जाता है। यह जो हम देख रहे हैं,यह हमारे अस्तित्व को प्रभावित करता है हमारी दृष्टि धीरे-धीरे पच कर अवशोषित कर ली जाती है।यह समाधि का दूसरा चरण है।
 
            तीसरे तल में तो मन का पूरा यातायात ही विलुप्त हो जाता है,मानो हम गहरी नींद में सोते हुये सपने देख रहे थे,और किसी ने हमें झकझोर दिया और हम जाग गये और सपनों का यातायात सारा अचानक रुक गया । इस तीसरे तल में हम सत्य के साथ एक हो जाते हैं,क्योंकिअब वहॉ हमें विभाजित करने वाला कुछ रहा ही नहीं।
 
            यह दीवार वहॉ रही ही नहीं,यह दीवार जो विचारों,कामनाओं अनुभवों और भावों की ईंट से बनी हुई चीन की दीवार के समान थी,जो कि बहुत मजबूत है,एक बार अगर वह ध्वस्त हो जाती है,तो हमारे और परमात्मा के बीच कोई भी अवरोध नहीं रह जाता है। समाधि की तीसरी स्थिति जब पहली बार घटित हो जाती है तो फिर वही स्थिति होती है जिसके लिए उपनिषद में कहा गया है कि- अहं ब्रहास्मि-मैं ही परमात्मा हूं। मैं ही सत्य हूं। जीसस कहते हैं कि मैं और मेरा परमात्मा एक ही है-मैं और मेरा पिता एक ही है।
 

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