विश्वास और संदेह का सम्बन्ध

1-विश्वास करना एक निर्णय नहीं है
 
अ-         अगर हम किसी पर विश्वास करते हैं तो यह हमारा निर्णय नहीं है,इसलिए कि हम उसके लिए निर्णय नहीं ले सकते हैं। जब हम उसके प्रति संदेह करना बन्द कर देते हैं,जब हम संदेह को संदेह की दृष्टि से देखने लगते हैं, तो हम संदेह की व्यर्थता के प्रति पूर्णतः आश्वस्थ हो जाते हैं,फिर विश्वास का जन्म हो होता है। विश्वास के लिए तो कुछ करने की जरूरत नहीं है,वरना विश्वास का महत्व कम हो जायेगा,क्योंकि विश्वास और हमारा निर्णय हमेशा संदेह के विरुद्ध ही होगा। जबकि विश्वास संदेह के विपरीत नहीं होता है। जब संदेह नहीं होता है तो उस समय विश्वास होता है। इसी प्रकार विश्वास किसी के प्रतिकूल नहीं होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि अंधकार प्रकाश के विपरीत नहीं होता है। भले ही यह विपरीत प्रतीत होता है,इसलिए कि हम अंधकार को लाकर प्रकाश को नष्ट नहीं कर सकते हैं। हम अंधकार को अंदर नहीं ला सकते हैं,हम अंधकार को प्रकाश के ऊपर उडेल नहीं सकते हैं। अंधकार इसलिए हैं,क्योंकि प्रकाश नहीं है।जब प्रकाश होता है तो अंधकार नहीं होता है। और जब हम कमरे में प्रकाश करते हैं तो उस समय अंधकार कमरे से बाहर नहीं जाता है ,बल्कि हमको लगता है कि अंधकार वहॉ है ही नहीं ,वह कभी वहॉ था ही नहीं।
 
 
ब-           अगर देखें तो हमारा संदेह उस अंधकार के समान और विश्वास प्रकाश के समान होता है। यदि हमारे अन्दर यह प्रकाश है तो तभी हम विश्वास करने का निश्चय करते हैं,लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि निश्चय क्यों करते हैं? इसलिए कि संदेह होना ही चाहिए,जितना अधिक संदेह होगा, उतना ही अधिक विश्वास सृजित करने के लिए अनुभव किया जाता है। इसीलिए यदि कभी कोई व्यक्ति जब यह कहता है कि मैं दृढता से विश्वास करता हूं,तो इसका मतलव हुआ कि वह एक बहुत मजबूत संदेह के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। इसी प्रकार कुछ लोग कट्टर धार्मिक बन जाते हैं।उनमें कट्टर धार्मिकता का जन्म इसलिए होता है, इसलिए कि उन्होंने एक झूठा विश्वास उत्पन्न कर लिया है,और उनका संदेह अभीतक जीवित है।वह अभी भी वहॉ है,और संदेह से लडने के लिए उन्होंने उसके विरुद्ध विश्वास सृजित कर लिया है। और यदि संदेह मजबूत है तो विश्वास के साथ एक उन्मादी की भॉति अपने को लपेटना होगा।
 
 
स-         यदि कोई कहता मैं एक निष्ठावान विश्वासी हूं तो हमें समझना होगा कि उस ब्यक्ति के मन में कहीं गहरे में बहुत बडा अविश्वास चल रहा है,वरना उसे निष्ठावान विश्वासी कहने की जरूरत क्या थी। ठीक इसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति यह कहता है कि मैं तुमसे दृढतापूर्वक प्रेम करता हूं तो इसका मतलव हुआ कि कहीं कोई चीज गलत है ।प्रेम ही काफी था। यी कोई कहता है कि मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूं तो इसका मतवलव भी यही हुआ कि कहीं कोई चीज गलत है।इसलिए कि वह कम .या अधिक प्रेम नहीं कर सकता है.क्योंकि वह या तो प्रेम करता है अथवा नहीं करता है,स्पष्ट विभाजन है।अत्यधिक प्रेम शव्द का प्रयोग निरर्थक है,क्योंकि प्रश्न परिणॉम का नहीं बल्कि गुंण का है। जब तुम अधिक कहते हो तो उसके पीछे कोई ची जरूर छिपा रहे हो,जिसमें थोडी घृणॉ,थोडा सा क्रोध,थोडी सी ईर्ष्या ।कुछ ऐसी चीज जरूर है,जो प्रेम नहीं है। उसे छिपाने के लिए ही तुम इतने अधिक उत्साह का प्रदर्शन कर रहे हो,जिसे कि तुम अत्यधिक प्रेम,दृढ विश्वास कह रहे हो। यदि तुम स्वयं को कट्टर ईसाई कहते हो तो तुम ईसाई जरा भी नहीं होते। इसी प्रकार यदि तुम स्वयं को कट्टर हिन्दू कहते हो तो तो इसका मतलब तुम अभी तक हिन्दू होना समझे ही नहीं।
 
 
 
2-सन्देह को विना विश्लेषण के मत छोडो
 
अ-          होता क्या है कि हम संदेह का दमन कर लेते हैं,संदेह को तो विना विश्लेषण के नहीं छोडना चाहिए। संदेह करने वाले मन की सभी पर्तों के साथ पहचान बनाओ ,उनसे पहचान बढाने से,संदेह विसर्जित होंगे। एक दिन अचानक जब तुम जागोगे तो विश्वास से भरे होंगे। यह निर्णय लेना जैसा नहीं है, क्योंकि विश्वास तो कुछ ऐसी चीज है,जिसके साथ तुम जन्मते हो। और संदेह तो सीखी हुई चीज है,और विश्वास होता है मौन और जन्मजात।
 
 
ब-          जब हम छोटे थे तो हम विश्वास करने लगते हैं। जैसे-जैसे हम बडे हुये,संदेह हटने लगते हैं। संदेह करना तो सीखा जाता है। और विश्वास तो हमारे अन्दर अन्तर्प्रवाह की तरह हमेशा रहता है। अगर हम संदेह हटा देते हैं तो विश्वास खडा हो जायेगा,और उस विश्वास का अपना अलग ही सौन्दर्य होता है,इसलिए कि वह शुद्ध होता है। विश्वास तभी होता है जब संदेह न हो।
 
 
स-          यह देखा गया है कि निर्णय लेने में जितनी देरी होती है,उतना ही अधिक संदेह उत्पन्न होगा । तुम दो भागों में विभाजित हो जाओगे,फिर कभी विश्राम से नहीं रह सकोगे। एक पीडा निरंतर बनी रहेगी। उस स्थिति में संदेह तुम्हारे अस्तित्व के लग-भग केन्द्र तक पहुंच गया होता है। इसलिए प्रेम के बारे में,विश्वास के बारे में और परमात्मा के बारे में कभी भी कोई निर्णय लेना ही नहीं चाहिए। ये चीजें हमारे निर्णय से नहीं होतीं हैं। बस यही कि जब कोई भी संदेह नहीं होता है,तभी विश्वास होता है।

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