आत्मानुभूति


 
1-          हमारे सामने जीवन के प्रारम्भ में यह प्रश्न आया कि इस बाहरी जगत की रचना कहॉ से हुई ? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? फिर एक विचार और उत्पन्न हुआ कि मनुष्य के अन्दर कौन सी ऐसी चीज है,जो उसे जीवित रखती है और उसे चलाती है,और मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है। हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने अमर होने के सम्बन्ध में चिंतन किया था, और समय समय पर अलग-अलग तथ्य सामने आये ।
 
 
 
2-           जो भी हो जब हम इस पृथ्वी के सम्बन्ध में सोचते हैं तो हमारा दृष्टिकोंण मानवीय होता है।हर एक जीव की अपनी दुनियॉ होती है,जैसे यदि कुत्ता दार्शनिक होता तो वह अपने कुत्ता जगत के बारे में ही सोचता, उसे ईश्वर से कोई मतलव नहीं। इसी प्रकार बिल्ली,गाय आदि सभी की दुनियॉ की धारणॉ अलग-अलग होती है। इसी प्रकार हम मनुष्यों की धारणॉ मनुष्य जगत तक ही सीमित है,इसलिए हमारी व्याख्या इस जगत के सम्बन्ध में पूर्ण नहीं है।
 
 
 
3-          मनुष्य ने इस जगत के सम्बन्ध में अपने-अपने स्वार्थपूर्ण तरीके से जो व्याख्या की है,उसे ग्रहण करना एक भूल होगी।उसमें दोष यह है कि जिस जगत को हम देखते हैं,वह अपना ही जगत है,इसी को हम सत्य के रूप में देखते हैं। हम इस जगत को पंच्चेन्द्रिय की दृष्टि से ही जानते हैं। हमारी ये इन्द्रियॉ सीमाबद्ध है,और इन सीमॉओं के भीतर ही हमारा यह अपना जगत स्थित है, और हम इस जगत को ईश्वर को आधार मानकर समाधान करते है। लेकिन इससे समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हो सकता है।
 
 
 
4-           लेकिन मनुष्य चुप रहकर नहीं बैठ सकता है,वह चिंतनशील है वह ऐसा समाधान करना चाहता है,जिससे जगत की समस्याओं का समाधान हो सके। वह एक ऐसे जगत को देखना चाहता है,जिसमें एक साथ मनुष्यों ,देवताओं तथा सभी प्राणियों का जगत हो,और समस्त विश्व की व्याख्या हो।
 
 
 
5-          इसलिए हमें पहले ऐसे जगत की खोज करनी चाहिए,जिसमें अनेक सभी जगत सम्मिलित हो,एक ऐसे पदार्थ की खोज करना होगा जो सभी स्तरों पर साधन के रुप में उपलव्ध हों। इस सम्बन्ध में और गहराई में और अधिक गहराई में प्रवेश करना ही इस समस्या का समाधान करने का एक मात्र उपाय है।
 
 
 
6-          हमारे विचारकों ने महशूस किया कि वे केन्द्र से जितनी दूर जाते हैं विचारों में विभिन्नताएं उतनी ही अधिक होती जाती हैं, और वे केन्द्र के जितने निकट आयेंगे,हमारी त्रिज्याओं का मिलन बिन्दु उतना ही निकट होगा ।और हमारा यह बाह्य जगत उस केन्द्र से बहुत दूर है,इसलिए इसमें कोई ऐसा साधारण मिलन नहीं हो सकेगा.।
 
 
 
7-          अगर देखें तो यह जगत सम्पूर्ण स्तित्व का एक अंश मात्र है,और समूचे जगत के अगल-अलग तत्व हैं, और किसी एक को लेकर समस्त जगत का समाधान करना असम्भव है ।इसलिए किसी तत्व के केन्द्र का पता लगाना होता है,जिससे उस सत्ता के अन्य स्तरों की उत्पत्ति हुई, फिर उस केन्द्र पर खडे होकर इस प्रश्न के समाधान की चेष्ठा की जा सकती है। वह केन्द्र कहॉ है? वह तो हमारे भीतर है-इस मनुष्य के भीतर ।
 
 
 
8-          हमारे महॉपुरुषों ने देखा है कि अपने भीतर अग्रसर होते-होते जीवात्मा का ब्रह्मॉण्ड का केन्द्र यही है।यही स्थान सबकी मिलन भूमि है। इस स्थान पर आकर हम सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुंच सकते हैं।
 
 
 
9-          हमारे पुराणों में आदर्श के रुप में एक घटना का उल्लोख बार-बार आता है और हमारे पंडित जी वेद पाठों में इस घटना का जिक्र करना नहीं भूलते हैं कि- एक धनी व्यक्ति था,उसने एक बार यज्ञ किया,उस समय यज्ञ में दान का नियम था। लेकिन वह यज्ञ कर्ता सच्चे ह्दय का नहीं था। वह यज्ञ द्वारा मान सम्मान पाना चाहता था। यज्ञ में उसने ऐसी वस्तुएं दान में दे दी,जो उपयोग के लायक नहीं थी।उसके पुत्र नचिकेता ने यह देखा कि मेरे पिता सही ढंग से अपने व्रत-पालन नहीं कर रहे हैं,बल्कि व्रत को भंग कर रहे हैं। लेकिन उसकी मसझ में यह नहीं आ रहा था कि उनसे कहें क्या !क्योंकि भातर वर्ष में अपने माता-पिता को प्रत्यक्ष देवता माना जाता है,उनके सामने पुत्र कुछ कहने का साहस ही नहीं करता है।उसने केवल यही पूछा कि पिता जी आप मुझे किसको देंगे? आपने तो यज्ञ में सर्वस्व दान करने का संकल्प कर रखा है।यह सुनकर पिता चिढ गये और बोले अरे यह तू क्या कह रहा है? भला पिता अपने पुत्र का दान कर सकता है,यह कैसी बात है? लेकिन बालक ने कई बार पिता से यही प्रश्न किया,तब पिता क्रुद्ध होकर बोले कि जा तुझे यम को देता हूं। उसके बाद कहते हैं बालक यम के घर गया ।यम देवता स्वर्ग में पितरों के शासनकर्ता हैं। उस समय यमराज घर पर नहीं थे,इसलिए उस बालक को तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा करनी पडी। चौथे दिन यम घर आये।
 
 
 
10-          यम उस बालक से कहने लगे तुम तीन दिन तक बिना खाये-पिये प्रतीक्षा करते रहे,इसलिए मैं तुम्हैं प्रणॉम करता हूं।तुम्हारा कल्यॉण हो। मैं घर पर नहीं था इसके लिए मुझे दुख है,लेकिन मैं इस अपराध के लिए प्रायश्चित स्वरूप मैं तुम्हैं प्रत्येक दिन के बदले एक-एक करके तीन वर देता हूं। तुम वर मॉग लो । बालक ने पहला वर मॉगा- आप मुझे पहला वर दें कि पिता जी का मेरे प्रति क्रोध दूर हो जाय।,और मेरे मित्र प्रशन्न हों,और जब में पिता जी के सामंने जाऊं तो वे मुझे पहचान लें,और मेरे प्रति वे प्रशन्न हों। यम ने कहा तथास्तु ।
 
 
 
11-          नचिकेता ने द्वितीय वर में स्वर्ग पहुंचाने वाले यज्ञ के बारे में जानने के बारे में इच्छा की- इस सम्बन्ध में यम ने उल्लेख किया कि वेद में केवल स्वर्ग की बातें हैं,वहॉ सबका शरीर ज्यौतिर्मय हो जाता है।स्वर्ग में रहना इस जगत में रहने से कोई अधिक भिन्न नहीं है। जिस प्रकार एक स्वस्थ,धनिक युवक का जीवन होता है उसी प्रकार स्वर्गीय जीवों का भी जीवन होता है। लेकिन इस जड जगत समस्या का कोई समाधान नहीं है,तो स्वर्ग से क्या समाधान हो सकता है?इसलिए हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमें जो असंख्य घटनाएं दिखाई देती हैं, उनमें अधिकॉश अभौतिक हैं। अगर अपने जीवन की ओर देखते हैं तो हमारी मानसिक घटनाएं बाहर की भौतिक घटनाओं की तुलना करते रहते हैं। हमारे अन्दर का जगत वेगशील है जिसका कार्य क्षेत्र काफी विस्तृत है। स्वर्ग वाद के सम्बन्ध में अदिकॉश लोगों को तृप्ति नहीं हुई है। द्वितीय वर में नचिकेता ने स्वर्ग जाने वाले यज्ञ बारे में ज्ञान की प्रार्थना की थी,क्योंकि प्राचीन काल में यज्ञ से प्रशन्न होने पर देवतागण उन लोगों को स्वर्ग ले जाते थे। लेकिन आज यज्ञ एक प्रथा मात्र रह गई है।
 
 
 
12-          नचिके्ता ने तीसरा वर मॉगते हुये कहा कि-कोई कहता है कि -मृत्यु के बाद आत्मा रहती है,और कोई कहता है नहीं रहती। आप इस सम्बन्ध में मुझे समझाएं- इस वर पर यम भयभीत होकर कहने लगे,हो नचिकेता तुम कोई दूसरा वर मॉगो,इस सम्बन्ध में अधिक अनुरोध न करो। क्योंकि प्राचीनकाल में देवताओं को भी इस सम्बन्ध में सन्देह था। लेकिन नचिकेता अपनी बात पर अडिग रहे, और कहने लगे देवता इस बात पर संदेह रखते थे,और इससे समझना आसान भी नहीं है।यह तो सत्य है,लेकिन इस विषय पर आपके अलावा कोई दूसरा नहीं बता सकता। यम ने कहा नचिकेता जो चाहे तुम मॉग लो ,इस पृथ्वी पर तुम राज्य कर लो,जितना जीना चाहो जी लो लेकिन इसके ,स्थान पर कोई दूसरा वर मॉग लो। पर तुम मृत्यु के सम्बन्ध में न पूछो। नचिकेता ने कहा ये वस्तुएं तो केवल दो दिन के लिए हैं,आपने जिन वस्तुओं को देने की बात कही उनसे तो मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता है,आप जब तक इच्छा करें मैं तभी तक जीवित रहूंगा, इसलिए मैने जिस वर की प्रार्थना की है बस वही वर मैं चाहता हूं। नचिकेता की बातों से यम प्रशन्न हो गये और बोले- भोग के सिए दो वस्तुएं होती हैं एक श्रेय अर्थात परम कल्याण, और दूसरा प्रेय अर्थात रम्य भोग । इन दोनों का उद्देश्य अलग-अलग है । दोनों मनुष्य को भिन्न-भिन्न दिशा में ले जाते हैं। जो इनमें से श्रेय को ग्रहण करते हैं,उनका तो कल्यॉण होता है,और जो प्रेय को ग्रहण करते हैं वे लक्ष्य भ्रष्ठ हो जाते हैं। अगर ज्ञानी के समक्ष ये दोनों उपस्थित होते हैं तो वे श्रेय को ग्रहण करते हैं । और नचिकेता ने भी इन्ही को छोड दिया था,इसीलिए यम ने नचिकेता को परम तत्व का उपदेश देना प्रारम्भ किया।
 
 
 
13-          उक्त तथ्य से स्पष्ट है कि जबतक मनुष्य भोग वासना का त्याग नहीं करता तब तक उसके ह्दय में सत्य-ज्यौति का प्रकाश नहीं हो सकता है।जबतक मन में वासना की ये तुच्छ विषय मचलती रहती हैं,तबतक वे हमें वाहर की ओर खीचकर एक-एक बिन्दु का रस हमें दास बनाती हैं। ज्ञान के द्वारा ही हम सत्य को प्रकाशित कर पाते हैं।
 
 
 
14-          हम हमेशा सुनते आये हैं कि प्रत्येक धर्म विश्वास करने पर बल देता है,और हमने आंख बन्द करके विश्वास करने की शिक्षा पाई है।यह तो अन्धविश्वास हो गया। लेकिन अगर इस अन्धविश्वास का विश्लेषण करके देखें तो हमें ज्ञात हो जायेगा कि इसके पीछे भी एक सत्य छिपा है। उसी के सम्बन्ध में यह विवेचना हो रही है। क्योंकि तर्क के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती है। यह तो प्रत्यक्ष का विषय है,तर्क का नहीं। सारे तर्क तो प्रत्यक्षों पर आधारित हैं,इनके अलावा तर्क हो ही नहीं सकते हैं।धर्म बातों का विषय नहीं है,वह तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय है।
 
 
 
15-          बाह्य जगत के सम्बन्ध में अगर यह सत्य है तो,अन्तर्जगत के सम्बन्ध में यह सत्य क्यों नहीं हो सकता है? अगर विज्ञान में रसायन वेत्ता कुछ द्रव्य लेकर उनके प्रयोग से जो परिणॉम निकलता है उसे प्रत्यक्ष देखता हैं, और इससे एक सूत्र बन जाता है।सभी प्रकार का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित होना चाहिए। जिसके आधार पर तर्क किया जा सके। लेकिन अधिकॉश लोग वर्तमान के बारे में सोचते हैं,जिसमें कि यह प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव नहीं है।
 
 
 
16-          हमें अपनी आत्मा का अन्वेषण करके देखना होगा कि वहॉ क्या है? उसे समझना होगा और फिर उसका साक्षात्कार करना होगा। ईश्वर है या नहीं,यह तर्क से प्रमाणित नहीं हो सकता है।यदि कहीं ईश्वर है तो वह हमारे अन्तस्त में है ही, लेकिन क्या तुमने कभी उसे देखा?इस जगत का स्तित्व है या नहीं यही तो प्रश्न है। इस सम्बन्ध में हमेशा विवाद बना रहेगा। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि यह जगत चल रहा है।
 
 
 
  17-          यह सत्य है कि धर्म की बातों पर विश्वास करना एक युक्तिहीन तथ्य है।इसमें कोई भी आस्था नहीं रखी जा सकती है। जो लोग विश्वास करने को कहते है वे अपने को नीचे गिराते है,और यदि तुम उनके बचनों पर विश्वास करते हो,तो वह तुम्हैं भी नीचे गिराते है। हम अपने उन साधु-महॉपुरुषों को यही कहना चाहेंगे कि हमने अपने मन का विश्लेषण कर लिया है,और यह सत्य पाया है, यही धर्म का सार है।
 
 
 
18-          जो लोग धर्म के बारे में तर्क देते हैं,उनमें से 99 प्रतिशत लोग अपने मन का विश्लेषण करके नहीं देखते हैं। सत्य को पाने की कभी चेष्ठा नहीं की।इसलिए धर्म के विरोध के बारे में उनकी युक्ति का कोई मूल्य नहीं होता,उसी प्रकार कि सूर्य के बारे अच्छी तरह जानने वाले को अन्धा कहें कि तुम भ्रमित हो गये हो कि उसमें प्रकाश है।
 
 
 
19-          धर्म के बारे में जितने भी झगडे हैं,वे तब तक नहीं सुलझ सकेंगे जबतक हम यह नहीं समझ लेंगे कि धर्म -ग्रन्थों या मन्दिरों में नहीं है,बल्कि वह हमारी इन्द्रियों की अपरोक्ष अनुभूति है, इन इन्द्रियों से तो प्रत्यक्ष रूप में उसका अनुभव नहीं हो सकता है लेकिन जिन लोगों ने ईश्वर और आत्मा की अनुभूति की है वे ही धार्मिक हैं। अगर धर्म पर धारावाहिक भाषण देने वाले एक पण्डित यदि प्रत्यक्ष अनुभूति से रहित है तो वह और जड वादी में कोई अन्तर नहीं है। अगर ईसा के उस पर्वत पर के उपदेश का स्मरण मात्र से देवता हो जाता है तो इस पृथ्वी पर इतने करोड ईसाई है क्या वे सभी देवता बन गये?नहीं! इसलिए कि वे सभी सच्चे ईसाई हैं या नहीं यह संदेहात्मक है ।
 
 
 
20-          इसी प्रकार अपने देश को देखते हैं, कि यहॉ पर तीस करोड लोगों को वेदों का ज्ञान है,इस पर भी संदेह है इसलिए कि अगर एक हजार में से एक भी वेदों का ज्ञाता होता तो पूरा संसार दस मिनट में बदल जाता। लेकिन लगता है हम सभी नास्तिक हैं ,और जो भी व्यक्ति नास्तिकता को स्वीकार करता है,बस हम उससे विवाद करने लग जाते हैं। लगता है हम अन्धकार में हैं। धर्म के बारे में हम कुछ भी नहीं जानते हैं। बस हम कुछ मतों का अनुमोदन मात्र करना जानते हैं।
 
 
 
21-           होता क्या है कि जो व्यक्ति अच्छी तरह से बोल सकता है,सामान्यतः हम उसी को धार्मिक मानते हैं,लेकिन यह धर्म नहीं है।सुन्दर कौशल से आलंकारिक शव्दों में वर्णन करने की क्षमता ये तो सब पण्डितों के आमोद-प्रमोद की बातें हैं -यह धर्म नहीं है। जब हमारी आत्मा में प्रत्यक्ष अनुभूति का प्रारम्भ होना शुरू होगा,तभी धर्म का आगमन होगा,तभी हम धार्मिक होंगे। और हमारा नैतिक जीवन प्रारम्भ होगा। अभी तो हम पशुओं के समान है। बस केवल समाज में बने अनुशासन के भय से हम गडबड नहीं करते हैं। यदि समाज किसी गलत कार्य के लिए दण्ड को समाप्त कर दें तो हम अभी लूट-पाट करना शुरू कर देंगे।पुलिस तो हमें चरित्र के बारे में बताती है।
 
 
 
22-          अगर हम अपने ह्दय को टटोलें तो,पाते हैं कि यह बात कितनी सत्य है। इसलिए हम इस बनावटीपन का त्याग कर यह स्वीकार कर लें कि हम धार्मिक नहीं हैं,हमें दूसरे से द्वैष-भाव करने का कोई अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि हम सब भाई-भाई हैं,जब हमें प्रत्यक्ष अनुभूति होगी तभी हम धार्मिक परायण हो सकते हैं।
 
 
 
23-           जिस प्रकार तुमने किसी व्यक्ति को देखा है और कोई तुमसे कहता है कि तुमने उस व्यक्ति को नहीं देखा है,उसके कहने से क्या होता है,तुम उस व्यक्ति को अपने ह्दय में अच्छी तरह जानते हो कि तुमने उसे देखा है। इसी प्रकार जब तुम धर्म और उस ईश्वर को इस वाह्य जगत में प्रत्यक्ष रूप में अनुभव कर लेते हो,तो कोई भी तुम्हारे उस विश्वास को समाप्त नहीं कर सकता है। यही तो सच्चा विश्वास है।
 
 
 
24-          वेदान्त को देखें तो उसमें मूल बात यही है कि -धर्म का साक्षात्कार करो। केवल बात करने से कुछ नहीं होगा,और साक्षात्कार भी करना बहुत कठिन है। क्योंकि ऋषियों ने उसे अपनी अन्तर्दृष्टि द्वारा उपलव्ध किया है फिर वे सुख-दुख दोनों से पार हो गये। यह स्थिति सुख-दुख,शुभ-अशुभ कर्म,धर्म-अधर्म से पार की बातें हैं। यही बातें स्वर्ग के सम्बन्ध में भी हैं। यही तो मनुष्य चाहता है! कि सभी सुखी हों दुख न हो। लेकिन यह धारणॉ भ्रॉमक भी है,क्योंकि पूर्ण सुख या पूर्ण दुख सम्भव नहीं है।

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