सुख-दुख के रूप


1-            जी हॉ सुख-दुख के भी अजीवोगरीव रंग है,कभी एक रुप में तो कभी दूसरे रूप में दिखता है। मैं एक मैगजीन में एक कहानी पढ रहा था ,कि रोम में एक धनी व्यक्ति को एक दिन जब इस बात का पता चला कि उसके पास अब केवल दस लाख डॉलर शेष हैं,तो उसने सोचा कि आगे अब मेरा काम कैसे चलेगा । तो उसने उसी क्षण आत्महत्या कर ली। उसके लिए दस लाख डॉलर कुछ भी नहीं था,लेकिन हम लोगों के लिए तो पूरे जीवन की आवश्यकता से भी यह अधिक था। अगर हमारे पास ये डॉलर होते तो हम खुश हो जाते, मगर उस धनी के पास होने पर वह दुखी हो गया। अगर देखें तो ये सुख और दुख क्या है?ये तो सतत् परिवर्तन शील हैं,लगातार विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं।
 
 
 2-            मुझे अपने बचपन की .याद आती है कि मैं सोचता था कि बडा होकर मेरी अपनी गाडी होगी तो मैं सुख की पराकाष्ठा पर रहूंगा। लेकिन अब मैं बडा हो गया मगर अब मैं ऐसा नहीं सोचता। जीवन में लोग अलग-अलग प्रकार के सुख को पकडकर रखते हैं । एक ब्यक्ति हर दिन शराब पीकर सुखी महशूष करता है,लेकिन दूसरा व्यक्ति है जो शराब के नाम से ही दुखित हो जाता है। एक कवि अपनी कविता में उस जगह को स्वर्ग के रूप में वर्णन करता है जहॉ अनेक नदियॉ बहती हैं,घनॉ जंगल हो,पहडियॉ हो,वर्षा हो। लेकिन अपना जीवन तो ऐसे स्थान में व्यतीत हो रहा है जहॉ ये सब चीजें हैं,इसलिए मेरे लिए स्वर्ग की कल्पना तो उस स्थान की है जहॉ वर्षा कम हो मैदानी हो,घना जंगल न हो। अर्थात हमारी सुख की धारणॉ हमेशा बदलती रहती है।
 
 
 3-           एक आदमी है जो स्वर्ग की कल्पना सुन्दर रमणियों से परिपूर्ण हो,वही व्यक्ति अगर वृद्ध हो जाता है तो उसके इस सुख की कल्पना बदल जाती है। अर्थात हमारे उद्देश्य ही हमारे स्वर्ग का निर्मॉण करते हैं। प्रयोजन बदल गया तो स्वर्ग का रूप भी बदल जाता है। अगर हम उस जगह जॉय जहॉ इन्द्रिय सुख प्राप्त हो,तो उस जगह में हमारी उन्नति नहीं हो सकती,लेकिन जो लोग विषयभोग की लालसा रखते हैं वे लोग इस प्रकार की प्रार्थना करते रहते हैं। क्या यही हमारा अंतिम लक्ष्य है ? थोडा हंसना थोडा रोना,और उसके बाद कुत्ते के समान मृत्यु।! उस समय हम यह नहीं जानते कि मानव जाति के लिए जो अमंगलकारी है,हम उसी की कामना करते हैं।
 
4-            इसका मतलव यह हुआ कि हम यथार्थ आनन्द का स्वरूप नहीं जानते हैं। दर्शनशास्त्र में एक ऐसा आनन्द की बात कही गई है जिसमें यह आनन्द हमारे वाह्य सुख भोग के समान नहीं है। हमारे वेद भी यही कहते हैं कि इस जगत में तो यथार्थ आनन्द अंशमात्र है,क्योंकि आनन्द का वास्तविक अस्तित्व तो हमारे ब्रह्मॉनन्द में है जिसका कि हम प्रतिक्षण उपभोग करते हैं । जहॉ कि हर प्रकार का हर्ष,आनन्द,सुख मिलता है,यहॉ तक कि चोरों को भी यही आनन्द मिलता है। लेकिन वह बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से मलिन और धुंधला हो गया है। इसके लिए हमें समस्त वाह्य वस्तुओं के सुख भोग का त्याग करना होगा।,तभी प्रकृत आनन्द का प्रारम्भ होगा।हमें पहले अज्ञान और मिथ्या का त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को प्रकाशित करने लगेगा। तभी हम सत्य को दृढता से पकड सकेंगे,और जो त्याग हमने किया था, वह हमें एक नयें रूप में दिखाई देगा।
 
 
 5-            हम सभी पदार्थों को नवीन आलोक में देख सकेंगे। लेकिन इसके लिए हमें पहले त्याग करना होगा,बाद में सत्य का आभास होने पर हम पुनः उन सब को ग्रहण कर सकेंगे। हमारे वेदों में इस आनन्द की प्राप्ति के लिए कई प्रकार की तपस्याओं की बात कही गई है ।जिसमें कि ब्रहम्चर्य का अनुष्ठान मुख्य है इसमें कुछ अध्ययन के बाद का सारॉश आपको बता दें कि इसमें ऊं शब्द की महिमॉ का वर्णन है। और नचिकेता के प्रश्न के उत्तर के रूप में उल्लेख किया गया है कि-मृत्यु के बाद मनुष्य की क्या दशा होती है। के उत्तर में कहा गया है कि-यह आत्मा न कभी मरती है और न जन्म लेती है। यह न किसी से उत्पन्न होती है,यह तो नित्य है। मारने वाला अगर यह सोचे कि मैं किसी को मार सकता हूं,अथवा मारने वाला व्यक्ति यह सोचे कि मैं मरा हूं तो दोनों सत्य से अनभिज्ञ हैं। क्योंकि आत्मां न किसी को मारती है,और न स्वयं मरती है। आत्मा में तो पहले से पूर्ण ज्ञान,पूर्ण पवित्रता है।उसका भेद यही है कि कहीं पर अधिक प्रकाश तो कहीं पर कम प्रकाश दिखता है,लेकिन आत्मा में इस भेद का कोई अर्थ नहीं होता है।ठीक उसी प्रकार कि जैसे एक व्यक्ति के वस्त्रों में से उसके शरीर का अधिकॉश भाग दिखता है और दूसरे व्यक्ति के वस्त्रों में से उसके शरीर का अल्प भाग ही दिखाई देता है।
 
 
 6-            देह और मन के तारतम्य के अनुसार ही आत्मां की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित होती है। दर्शन में इस बात का उल्लेख है कि शुभ और अशुभ दोनों अलग-अलग नहीं हैं बल्कि दोनों एक ही है।आज जिस वस्तु को हम शुभ कह रहे हैं,कल कुछ अच्छी परिस्थिति प्राप्त होने पर उसी को हम दुख कहने लगते हैं।जो अग्नि हमें सर्दी से बचाती है वही हमें भस्म भी कर सकती है,तो यह अग्नि का दोष नहीं है। इसलिए आत्मा का स्वरूप स्वयं में पूर्ण है। यदि व्यक्ति सत्य कार्य करता है तो वह अपने स्वरूप के विपरीत आचरण करता है।
 

 7-           आत्मा के सम्बन्ध में एक सुन्दर उपमॉ दी गई है कि आत्मा को रथी,शरीर को रथ,बुद्धि को सारथी,मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्व कहा गया है। जिस रथ की लगाम मजबूत है और सारथी द्वारा मजबूत पकडी गई है,उसका रथी विष्णु के उस परमपद को पहुंच सकता है,लेकिन जिस रथ के इन्द्रिय रूपी घोडे दृढ रूप से संयत नहीं हैं तथा मन रूपी लगाम मजबूती से पकडी हूई नहीं है,उसका रथ अन्त में विनाश को प्राप्त करते हैं। वे मृत्यु सुख से मुक्त हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में आधुनिक समय में अनेक प्रकार के प्रश्न उठ सकते हैं,और कई प्रकार के संदेह उत्पन्न होंगे।
 
 
8-            लेकिन हर बार हम अपने पूर्व संस्कारों द्वारा संचालित होंगे। बाल्यकाल से आजतक हमारे पूर्व संस्कारों का हमारे मन पर गहरा प्रभाव है। अनेक लोग विषय भोग में सुख पाने के कारण विषय सुख का अन्वेषण करते हैं,लेकिन अनेक व्यक्ति हो सकते हैं,जो उच्चत्तर आनन्द का अन्वेषण करते हैं.। जैसे कुत्ता खाने-पीने से सुखी हो जाता है। वैज्ञानिक तारों की स्थिति जानने के लिए ही विषय सुख को तिलॉजलि देते हैं,वह तो किसी पर्वत शिखर पर वास करता है।वह जिस अपूर्व सुख का स्वाद पाता है,कुत्ता उसे नहीं समझ सकता है। हो सकता है कुत्ता उसको देखकर हंसता हो मगर वैज्ञानिक कहेगा कि भाई कुत्ते तुम्हारा सुख केवल इन्द्रियों में है,तुम उसके अतरिक्त और कोई सुख नहीं जानते हो लेकिन मेरे लिए तो इससे बढकर और कोई सुख नहीं है।
 
 
 9-            और यदि तुम्हैं अपने सुख का अधिकार है तो मुझे भी है। हमारे अन्दर यही भूल है कि हम पूरे जगत को अपने ही अनुसार चलाना चाहते हैं।हम अपने मन को सारे जगत का मानदण्ड बनाना चाहते हैं।तुम्हारी दृष्टि में वे पुरानी इन्द्रियसुख-विषयों में ही सबसे अधिक सुख है,लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे भी उन्हीं में सुख मिलेगा। और फिर तुम अपने मत पर अडने लगते हो,तो मेरा तुमसे मतभेद हो जाता है।
 
 
 
  10           भौतिक वादी और धार्मिक व्यक्ति में यही मतभेद है ,भौतिक वादी कहते हैं कि हम कितने सुखी हैं, हमें पैसा मिलता है,हम सुखी हैं, तुम्हारे धर्म तत्वों को लेकर माथापच्ची नहीं करते हैं,हम बडे मजे में हैं। अच्छी बात है, लेकिन संसार भी बडा भयानक है, ठीक है किसी को कष्ट न पहुंचाकर सुख प्राप्त करना तो ठीक है, मगर यदि कोई मुझसे कहता है कि अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो तुम मूर्ख हो तो मैं उससे कहता हूं कि तुम गलत हो ,क्योंकि तुम्हारे लिए जो सुखकर है,वह मेरे लिए बिल्कुल विपरीत है ।
 
 
11-            सच तो यह है कि जिसने निम्न भोग वासनाओं का अन्त कर लिया,वही धर्माचरण कर सकता है । हमें तो अपने अनुभव प्राप्त करने होंगे। बस जहॉ तक हमारी दौड है उसे हमें पूरी करनी होगी,तभी हमारी दृष्टि के समक्ष परलोक का द्वार खुलता है। विषयभोग वासना के सम्बन्ध में कहा गया है कि यहअन्य रूप लेकर भी आती है,जो हमें रमणीय लगते हैं,उनमें खतरे की आशंका रहती है। वैसे कुछ धर्मों मे यह धारणॉ है कि एक ऐसा समय आयेगा कि जबकि संसार का समस्त दुख समाप्त हो जायेगा ,केवल सुख ही सुख रहेगा। पृथ्वी स्वर्ग में परिणत हो जायेगी। लेकिन इस बात पर विश्वास कम होता है ।
 
 
 12-           हमारी यह पृथ्वी जैसे थी वैसे ही रहेगी,क्योंकि इस तरह का कोई दूसरा मार्ग नहीं दिखता है । प्राचीन काल में लोग जंगलों में एक दूसरे को मारकर उनका मॉस खाते थे,परन्तु आज लोग एक दूसरे का मॉस तो नहीं खाते हैं मगर एक दूसरे को खूब ठगा लेते हैं। छल कपट से नगर और देश ध्वंस होते जा रहे हैं। तुम लोग जिसे उन्नति कहते हो,उसे उन्नति नहीं कहा जा सकता है। यह तो वासनाओं की लगातार वृद्धि है। एक बात तो स्पष्ट है कि वासना में केवल दुख का आगमन होता है।
 
 
13-            इस संसार में दुख सुख समान है यदि किसी को सुख प्राप्त हुआ है,तो न्श्चित ही किसी दूसरे मनुष्य या पशु को दुख हुआ है। मनुष्यों की संख्या तो बढी है मगर कुछ प्राणियों की संख्या घटी है। यदि सबल जाति दुर्वल जातियों को ग्रास करते हैं मगर क्या वे सबल जाति के लोग सुखी होंगे? इसलिए यह संसार स्वर्ग नहीं बन सकता है। हॉ इतना है कि तुम्हैं निम्नतम् से उच्चतम् प्राणी तक जाने वाली प्राणी की एक श्रेणी मिल जाती है।

Comments

Popular posts from this blog

ज्ञान के चक्षु का प्रभाव

दर्द

प्रेम, दयालुता एवं शांति