जीवन की अमरता का रहस्य
जीवन में अमर होने की बात एक रहस्य बना हुआ है, मनुष्य ने इतनी खोजें कर ली हैं,मगर अमर होने की खोज का रहस्य अधूरे सपनों की फायलों में बन्द है। हर कोई अमर होने की बात करता है। यह साधु महात्माओं और ज्ञानियों सभी का गहन चिंतन का विषय रहा है,कवियों की कल्पना का यह मुख्य विषय रहा है। राजा महॉराजाओं ने भी अमर होने की कल्पना की है। सभी लोग चाहे वह भिखारी हो या राजनेता अमर होने की चाह रखते हैं। और जबतक जीवित है, यह संसार है, तबतक यह चाह रखेंगे कि अमर कैसे होते हैं । विभिन्न लोगों ने इस सम्बन्ध में अपने-अपने तर्क दिये हैं ।कुछ लोगों ने इसे अनावश्यक बात कहकर इस पर कुछ कहना छोड दिया है,लेकिन जो भी बात करता है उसके लिए यह बात नईं है । एक कदम भी इस खोज में कोई आगे नहीं बढ पाया है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि जो लोग ऐसी बातें करते हैं कहीं वे भ्रमित तो नहीं है?अज्ञानतावश तो नहीं सोचते हैं ऐसा? इस सम्बन्ध में हम विभिन्न पहलुओं की ओर देखने का प्रयास करते हैं---
1- अगर देखें तो हमारा ज्ञान हमारे अनुभवों से ही प्राप्त होता है,हमारे सारे तर्क हमारे अनुभवों पर ही आधारित होते हैं.। यह कि हम अपने चारों ओर सतत् परिवर्तन देखते हैं। जैसे बीज से बृक्ष होता है और चक्र पूरा करके वह फिर बीज रूप में परिणत हो जाता है। इसी प्रकार जीव भी उत्पन्न होते हैं और कुछ दिन जीवित रहकर मर जाते हैं,मानो एक वृत पूरा हो गया। समुद्र से बादल बनते हैं, और वर्षा करके फिर समुद्र में मिल जाते हैं। सर्वत्र जन्म,वृद्धि,और क्षय एक के बाद एक आता है,यही तो हमारा अनुभव है। लेकिन फिर भी अभेद्य दीवारें बन जाती है,जो एक वस्तु को दूसरी वस्तु से अलग करती हैं और फिर गिर जाती हैं।
2- प्राचीन लोगों ने एक नयें विचार की जो अवधारणॉ दी थी लगता है आधुनिक विचारक अभीतक उसे ठीक ढंग से समझ नहीं पाये हैं। यह है क्रम संकोच, प्राचीनकाल में दार्शनिक इसी शब्द का प्रयोग करते थे, जिसका भाव है- बीज से ही वृक्ष होता है बालू के कण से नहीं !पिता ही पुत्र में परिणत होता है,मिट्टी का ढेर नहीं। यह प्रश्न उठता है कि क्रमिक विकास किससे होता है? बीज पहले क्या था? यह बीज उस बृक्ष के रूप में था। और भविष्य में होने वाले सभी वृक्षों की सम्भावना उस वृक्ष में निहित है। इसी प्रकार एक बच्चा है उसमें भावी मनुष्य की सभी सम्भावनाएं बीज रूप में निहित हैं। अर्थात क्रमिक विकास से पहले क्रम संचोच का होना आवश्यक है। और उन वस्तुओं का क्रमिक विकास नहीं हो सकता है,जो पूर्व में क्रम संकाच नही रहे।
3- विज्ञान कहता है कि जडत्व का एक भी परमाणु घट- बढ नहीं सकता हैं, इसलिए क्रमिक विकास कभी शून्य नहीं हो सकता है । तो फिर यह सम्भव कैसे हुआ? क्रम संकोच से । एक बालक क्रम संकुचित मनुष्य है, और मनुष्य क्रमिक विकास बालक है। जीवन की सभी सम्भावनाएं उसके बीजाणु में हैं । और जीवन के सम्बन्ध में पिछली धारणॉ इसमें जोड दी गई । छोटे से जीव से लेकर पूर्णतम् मानव तक एक ही सत्ता कार्य करती है। इसलिए क्रमिक विकास से पूर्व क्रम संकोच रहता है। इस धरती पर मानव का पूर्णतम् विकास क्रमिक विकास द्वारा एक श्रृखला के रूप में हुआ है,लेकिन इससे पूर्व यह जीवन एक क्रमिक संकुचित रही होगी। जिससे यह जीवन मृत्युलोक में अवतरित हुई और फिर ईश्वर तक का समावेष हुआ।
4- अमर होने के सम्बन्ध में अभी बात सुलझी ही कहॉ!अगर हम देखें तो इस जगत के किसी भी पदार्थ का नाश नहीं होता है। और नया कुछ भी नहीं है। इस संसार में जितनी गति है,वह समस्त तरंग के रूप में एक बार उठती है,फिर गिर जाती है। सूक्ष्म से स्थूल में होते जाते हैं। यही तो मनुष्य जीवन की सत्यता है। जीवन सामने आता है चले जाता है। तो फिर नष्ट क्या होता है? उस जीवन का केवल रूप,आकृति। एक बार वह रूप नष्ट होता है मगर फिर आता है। सभी शरीर के सभी रूप नित्य हैं। ठीक पासा खेलने के समान कि पासा खेलने में वही अंक कई बार आ जाते हैं। हमारे सामने ये सारे पदार्थ परमॉणुओं के एक विशिष्ठ संयोग से बन जाता है,यही तो जीवन की रचना है।
5- यह देखने में आता है कि कुछ लोग अतीत और भविष्य की बातें बतला देते हैं। लेकिन यदि भविष्य के नियम किसी के अधीन न हों तो, फिर कैसे भविष्य के बारे में बताया जा सकता है? यह भी देखा जाता है कि अतीत के कार्य भविष्य में होते हैं। जैसे एक चर्खी है वह लगातार धूम रही है,लोग आकर एक पालने में बैठ जाते हैं,वह चर्खी घूमकर नीचे आती है और वे उतर जाते हैं,और दूसरा दल उसमें बैठ जाता है ।इसी प्रकार हर जीव के ऊपर यह बात लागू होती है कि-मानो एक दल चर्खी में बैठकर एक चक्कर पूरा करता है,यह शरीर मानो उस चर्खी के एक पालने जैसा है। नईं आत्माओं का एक दल उन पर चढता है,ऊंचे स्तर पर जाता है और जबतक उसमें पूर्णता नहीं आती है तब तक वे उसमें बैठते रहते हैं । चर्खी चलती रहती है दूसरे लोगों को लाने के लिए। जबतक शरीर इस चक्र के भीतर रहता है तबतक यह भविष्यवॉणी की जा सकती है कि अब वह किस ओर जाएगा ।
6- लेकिन आत्मा के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है। किसी भी शक्ति का नाश नहीं हो सकता है, ये शक्तियॉ सभी मिश्रण का रूप है, अर्थात प्रत्येक शक्ति अनेक शक्तियों से बनी है। लेकिन समिश्रण में ये शक्तियॉ एक समय में अपने मूल पदार्थ में लीन हो जाते हैं। और इस पृथ्वी पर जो भी जड या शक्ति से उत्पन्न हुये हैं, वे अपने अंशों में विकसित हो जाते है। लेकिन यह आत्मा भौतिक शक्ति नहीं हो सकती है और शरीर कभी आत्मा नहीं हो सकता है,क्योंकि वह बुद्धियुक्त नहीं है। शव या मॉश का टुकडा कभी बुद्धियुक्त नहीं हो सकता है।
7- बुद्धि का अर्थ है प्रतिक्रिया शक्ति। जैसे मैं अपने सामने सुराई देख रहा हूं, यहॉ पर सुराई से प्रकाश की किरणें निकलकर मेरी आंखों में प्रवेश कर रही हैं। वे मेरे नेत्र पटल पर एक चित्र अंकित करती हैं,और यह चित्र जाकर मेरे मस्तिष्क में पहुंचता है। हमारी संवेदक नाडी इस चित्र को मस्तिष्क में पहुंचाती है। लेकिन तब भी देखने की क्रिया पूरी नहीं होती है।क्योंकि अभी तक भीतर की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मस्तिष्क में निहित स्नायुकेन्द्र उस चित्र को मन के पास ले जायेगा और मन उस पर प्रतिक्रिया करेगा। इस प्रतिक्रिया के होते ही सुराही सामने दिखने लगेगी।
8- इसी बात को हम दूसरी बात से समझ सकते हैं कि- आप किसी दूसरे की बात को ध्यान पूर्वक सुन रहे हो और उसी समय एक मच्छर आपके हाथ पर बैठकर काट लेता है, आप उसकी बात को इस तरह ध्यान पूर्वक सुन रहे है कि आपको मच्छर के काटने का अनुभव ही नहीं हो पाया, मच्छर आपकी चमडी को काट रहा है,उस स्थान पर जितनी नाडियॉ है वे उस घटना को मस्तिष्क के पास पहुंचा भी रहे हैं,इसका चित्र मस्तिष्क में मौजूद भी है,लेकिन मन कहीं दूसरी जगह लगा है। इसलिए वह प्रतिक्रिया नहीं करता,जिससे आप उसे काटने का अनुभव ही नहीं करते हैं। अर्थात हमारे सामने कोई नया चित्र आने पर यदि मन प्रतिक्रिया न करें तो हम उसके सम्बन्ध में कुछ जान ही नहीं सकेंगे। लेकिन प्रतिक्रिया होते ही उसका ज्ञान हो जायेगा। तभी हम देखने,सुनने,और अनुभव करने में समर्थ होंगे। जैसे कि ज्ञान का प्रकाश हो गया। लेकिन देखने वाली बात है कि यह शरीर कभी ज्ञान का प्रकाश नहीं कर सकता है,क्योंकि जिस समय मनोयोग नहीं रहता है उस समय हम अनुभव नहीं कर सकते हैं।
9- एक ऐसा भी उदाहरण आया है कि कोई व्यक्ति एक ऐसी भाषा सीखने में समर्थ हुआ जो उसने कभी सीखी ही नहीं। लेकिन बाद में पता चला कि वह बचपन में ऐसी जाति में रहा कि जहॉ़ ये भाषा बोली जाती थी। बस वही संस्कार उसके मन में रह गया,वह सब वहॉ संचित था और बाद में मन में प्रतिक्रिया होने से वह व्यक्ति उस भाषा को बोलने में समर्थ हुआ। यहॉ पर इस उदाहरण से यह ज्ञात होता है कि केवल मन ही काफी नहीं है बल्कि मन भी किसी के हाथ में यन्त्र मात्र है। उस बालक के बडे होने पर एक और कोई शक्ति ने मन रूपी यन्त्र का उपयोग कर उस आदमी को उस भाषा को बुलवाना सिखा दिया। वह शक्ति यह आत्मा ही तो है,जो कि मन के पीछे विद्यमान है।
10- आधुनिक समय में दार्शनिक लोग मस्तिष्क में स्थित परमाणुओं के विभिन्न प्रकार के परिवर्तन के कारण यह होना मानते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया पहली घटना है यहॉ पर यह सिद्धॉत नईं भाषा बोलना सीखने की व्याख्या नहीं कर पाते। इसलिए मन के साथ मस्तिष्क का विशेष सम्बन्ध है,और शरीर के नष्ट होने पर वह नष्ट नहीं होता,मन उसके हाथों एक यंत्र के समान है। और उस यंत्र के माध्यम से आत्मा बाह्य साधन पर अधिकार जमा लेती है। जिससे प्रत्यक्ष बोध होता है। बाह्य आंखों से विषयों के संस्कार पडते हैं जिसे वे भीतर मस्तिष्क में ले जाते हैं। फिर मन इनको बुद्धि और बुद्धि इन्हैं आत्मा को प्रदान करती है,फिर आत्मा इन्हैं देखकर आवश्यक आदेश देती है। फिर मन तुरन्त इन्द्रियों पर कार्य करता है,और ये इन्द्रियॉ स्थूल शरीर पर । अर्थात आत्मा ही मुख्य कर्ता है।
11- अब देखने वाली बात यह है कि आत्मा न तो शरीर है और न मन,आत्मा न तो कोई यौगिक पदार्थ है। क्योंकि कुछ यौगिक हमारी कल्पना का विषय होता है,जिन्हैं हमें जानकारी हो जाती है। जिस विषय की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं वह न भूत है न भविष्य,जिसे हम पकड नहीं सकते हैं वह यौगिक नहीं हो सकता है। क्योंकि मनुष्य की आत्मा तो कार्य और कारण भाव से परे है, इसलिए वह यौगिक नहीं हो सकता है। आत्मा तो सदा मुक्त है और नियमों के अन्तर्गत सभी वस्तुओं का नियमन करती है। उसका कभी विनाश नहीं हो सकता है।
12- हम देखते हैं कि आत्मा जगत् के अतीत एक मौलिक पदार्थ है,जिससे इसका विनाश असम्भव है। जिसका विनाश नहो तो फिर उसका जीवन भी सम्भव नहीं हो सकता है। मृत्यु तो एक पहलू है और जीवन उसका दूसरा पहलू। अर्थात मृत्यु का एक और नाम है जीवन। और जीवन का दूसरा नाम है मृत्यु। अभिव्यक्ति को जीवन और उसी के रूप विशेष को मत्यु कहेंगे।
13- मानव आत्मा जीवन और मृत्यु से परे हैं। वह कभी न उत्पन्न हुआ,और कभी मरेंगे। हमारे चारों ओर जन्म और मत्यु दिखते है,फिर वे क्या है?वे तो केवल शरीर के रूप हैं,क्योंकि आत्मा सदा वर्तमान है। यह कैसे ?तो उत्तर यही होगा कि हम सभी लोग यहॉ पर बैठे हैं और आप कहते हैं कि आत्मा सर्व व्यापी है! आत्मा सर्व व्यापक नहीं है,इसके चारों ओर जड राशि इसको इसी रूप में रहने को बाध्य करती है।-इसे सर्वव्यापी होने नहीं देती है। यह अपने अपने आस-पास के प्रत्येक पदार्थ से नियंत्रित है। यदि तुम सर्वत्र विद्यमान हो तो फिर मैने कैसे जन्म लिया। मैं मरने वाला हूं यह सिर्फ अज्ञानता है,मन का भ्रम है तुम्हारा न कभी जन्म हुआ और न तुम कभी मरोगे। और न पुनर्जन्म होगा।यह इस सूक्ष्म शरीर अर्थात मंन के परिवर्तन के कारण उत्पन्न एक मृगमरीचिका मात्र है। जब हम गाडी में बैठते हैं तो मालूम होता है कि पृथ्वी चल रही है,नाव में बैठने वाला सोचता है पानी चल रहा है। वास्तव में न तुम जा रहे हो और न तुम आ रहे हो,न तुमने जन्म लिया है,न जन्म लोगे। तुम अनन्त हो,सर्वव्यापी हो । जडन्म और मरण का प्रश्न ही गलत है। मृत्यु हो ही नहीं सकती है,जब जन्म ही नहीं हुआ।
14- यह भी सत्य है कि सभी ज्ञान,सभी शक्ति,सभी कल्याण हमारे अन्दर है,लेकिन अगर हम सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं तो क्यों ? इस पृथ्वी पर ऐसी सत्ता एक से अधिक के पास हो सकती है? नहीं, वास्तव में आत्मा एक ही है और हम सब एक ही आत्मा हैं,सब जगह एक ही आत्मा है,वही एक मात्र सत्ता है,सर्वव्यापक,सर्वज्ञ,जन्म रहित और मृत्यु रहित। उसी की आज्ञा से तो आकाश फैला हुआ है,उसी की आज्ञा से वायु बह रही है,सूर्य चमक रहा है।,सब जीवित हैं। वही प्रकृति का आधार स्वरूप है।और वह है तुम्हारी आत्मा की आत्मा। सब जगह एक ही है,सब जगह वही है,किससे घृणॉ, किससे संघर्ष,किससे लडोगे? यही पूर्ण है,यही ईश्वर है। जब तक तुम अनेक देखते हो,तबतक तुम अज्ञान में हो ।
15- इस परिवर्तनशील जगत में जो उस परिवर्तनशील को अपने आत्मा की आत्मा के रूप में देखते हैं,उसे अपना स्वरूप समझता है,वही मुक्त है,वही आनन्दमय है,उसी ने लक्ष्य की प्राप्ति की है। यह धारणॉ कि मैं ही पुरुष हूं, मैं ही स्त्री हूं,रोगी हूं,स्वस्थ हूं,बलवान हूं,निर्बल हूं,मैं प्रेम करता हूं या घृणॉ करता हूं,अथवा मेरे पास इतनी शक्ति है यह सब भ्रम मात्र है। इनको छोडो,तुम्हैं कौन दुर्वल बना सकता है,तुम्हैं कौन भयभीत कर सकता है इस जगत में तुम्हारी ही तो सत्ता है । तुम्हैं किसका भय है इसलिए उठो और मुक्त हो जाओ।कोई भी विचार या शव्द तुम्हैं तुर्वल नहीं बना सकता है। मनुष्य को दुर्वल बनाने वाला संसार में अगर जो भी है वह है वही पाप, बस उसी से बचना है। पर्वत की भॉति अटल रहो, तुम आत्मा हो, अविनाशी हो, तुम्ही तो जगत में ईश्वर हो, तुम्हें इस तरह केवल अज्ञान और भ्रम ही बॉधकर रख सकता है। अन्य कोई भी नहीं बॉध सकता है।
16- हम तुम सभी ईश्वर हैं,यदि तुम ईश्वर को नहीं देखते तो तुम फिर मनुष्य हो,यदि तुममें साहस है,तो इस विश्वास पर खडे हो जाओ और उसके अनुसार अपना जीवन गढ डालो,और यदि कोई तुम्हारा गला काटे तो उसे मना मत करना,क्योंकि वह तो स्वयं अपना गला काट रहा है। किसी गरीब का उपकार करना तुम्हारे लिए एक उपासना मात्र है। तुम्हीं समस्त जगत हो,तुम जगत की आत्मा हो। अतएव जान लो कि तुम वही हो, और इसी सॉचे में अपना जीवन ढालो। तुम तो अमर हो ।।
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