आत्म चिंतन


                 आत्मा की आवाज पहचानने से नये-नये रहस्यों की एक श्रृंखला कुछ प्रश्नों,कुछ उत्तरों और कुछ अनसुलझे रहस्य सामने आते हैं, भले ही यह भी सोचते हैं कि इन तर्कों से क्या हो जायेगा,लेकिन यह मानव प्रवृत्ति का एक अंग है,आत्म चिंतन के रहस्यों के बारे में अगर विचार करें तो,पर्दे खुलते जाते हैं लेकिन अंत उसी बिन्दु पर होता है जहॉ से चले थे -
 
1-           इस मनुष्य की रचना करने वाले ने मनुष्य की इन्द्रियों को बहिर्मुखी होने का विधान बनाया है,इसीलिए मनुष्य बाहरी विषयों की ओर देखता है,अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता है। लेकिन अगर देखें तो इस पृथ्वी पर जिसने भी अमरत्व की प्राप्ति की है उन्होंने बाहरी विषयों से विमुख होकर अपने अन्तरस्थ आत्मा का दर्शन किया है। हमारे वेदों द्वारा पृथ्वी पर हपली बार बाहरी विषयों के सम्बन्ध में खोज प्रस्तुत की है,जिसके आधार पर नवीन विचारों का जन्म हुआ है। उसके बाद कई प्रकार के विचार सामने आये हैं। सच तो यह है कि यह अनुसंधान बाहरी जगत के शोध द्वारा नहीं बल्कि भीतर की ओर दृष्टि डालकर सम्भव हुआ है।
 
 
2-           जन्म होते ही हम बाहरी कामनाओं के पीछे दौडते-फिरते हैं,इसीलिए हम मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं, इसीलिए ज्ञानी पुरुष अमृतत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते हैं। अर्थात बाह्य जगत जो कि अनित्य है,सीमित है में,असीमित और अनन्त वस्तु की खोज व्यर्थ है।
 
 
3-           अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी । हमारी आत्मा एक मात्र अनन्त वस्तु है। हमारा शरीर,मन,आदि जो जगत में प्रपंच्च दिखता है या हमारी चिन्ताएं,या विचार, इनमें कोई भी अनन्त नहीं हो सकता है। हमारी आत्मा हमेशा जाग्रत है वही एक मात्र अनन्त है,इसलिए इस जगत में अगर अनन्त की खोज करनी है तो हमें अनन्त में ही जाना पडेगा। जो यहॉ है, वही वहॉ भी है,और जो वहॉ है, वही यहॉ भी है। जो लोग यहॉ नाना रूप देखते हैं वे तो बार-बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
 
 
4-           अगर अपने इतिहास को देखें तो हमारे पूर्वज आर्यों में पहले स्वर्ग जाने की प्रबल इच्छा होती थी।लेकिन जब वे इस जगतप्रपंच से असन्तुष्ट हुये तो उनके मन में एक ऐसे स्थान में जाने की प्रबल इच्छा हुई,जहॉ दुःख बिल्कुल न हो,केवल सुख ही सुख हो। इस स्थान का नाम अन्होंने स्वर्ग रखा-जहॉ कि केवल आनन्द होगा,शरीर अजर-अमर हो जायेगा,मन भी वैसा ही हो जायेगा,जहॉ कि हमारे पितृगण भी होगे,वहीं हमारा वास होगा।
 
 
5-            दार्शनिक विचारों की उत्पत्ति के फलस्वरूप स्वर्ग की यह धारणॉ असंगत और असंभव प्रतीत हुई। यह धरणॉ बनने लगी कि देवता स्वर्ग में रहते हैं,और ये देवता पहले इस पृथ्वी पर मनुष्य थे बाद  सत्कर्म करने पर  देवता बन गये, इन देवताओं के जो कई नाम हैं वे इनके पद हैं,जो कि कर्मों से ही प्राप्त होता है। जैसे इन्द्र या वरुण किसी व्यक्ति के नाम नहीं बल्कि देवताओं में उनके पदों के नाम हैं।जो पहले इन्द्र था आज नहीं है। यह स्थान किसी ब्यक्ति ने ले लिया। इसी प्रकार सभी देवताओं की स्थिति है। कर्म के बल पर मनुष्य देवत्वप्राप्ति के योग्य होने से वे इन पदों पर समय-समय पर प्रतिष्ठित होते हैं।
 
 
6-           हमारे वेदों में देवताओं के सम्बन्ध में अमर शब्द का प्रयोग किया है लेकिन बाद में इसका परित्याग कर दिया गया। उपनिषदों में स्पष्ट किया गया कि जो कुछ यहॉ है,वह वहॉ है, जो कुछ वहॉ है वही यहॉ भी है। यदि वे देवता है तो जो नियम वहॉ है वहीं नियम यहॉ भी है।  और सभी नियमों में विनाश और बाद में फिर नये नये रूप धारण करना निहित है। जिसमें कि सभी जड पदार्थ विभिन्न रूपों में परिवर्तित हो रहे हैं। जिस किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है,उसका विनाश होता ही है।इसलिए यदि स्वर्ग है तो वह भी इसी नियम के अधीन होगा।
 
 
7-           हम देखते हैं कि इस संसार में जितने भी सुख हैं सबके पीछे उसकी छाया दुःख के रूप में रहती है। जीवन के पीछे उसकी छाया के रूप में मृत्यु,ये दोंनों हमेशा एक साथ रहते हैं।वे परस्पर विरोधी नहीं हैं,वे पृथक सत्ताएं भी नहीं हैं वे तो एक ही वस्तु के दो विभिन्न रूप हैं। यह धारणॉ कि शुभ और अशुभ ये दोनों पृथक वस्तुएं हैं और अनन्त काल से चले आ रहे हैं,नितान्त असंगत हैं। वे एक ही वस्तु के विभिन्न रूप है-कभी अच्छे रूप से और कभी बुरे रूप में भाषित होते हैं।इनका भेद वास्तव में मात्रा के तारतम्य में है।लेकिन यदि स्नायुमण्डली किसी तरह बिगड जाय तो फिर किसी प्रकार की अनुभूति नहीं होगी। उसमें से जो सुख की अनुभूति आती थी वह अब नहीं आयेगी और न दुख की अनुभूति आयेगी।ये कभी दो नहीं होते,वे एक ही हैं। एक ही वस्तु कभी सुख तो कभी दुख उत्पन्न करती है। एक ही वस्तु किसी को सुख तो किसी को दुख देती है।मॉशाहारी को मॉश खाने से अवश्य सुख मिलता है,लेकिन जिसका मॉश खाया जाता है,उसके लिए तो भयंकर कष्ट हो गया। कुछ लोग सुखी हो रहे तो कुछ दुखी,यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है । इस जगत में वह स्थिति कभी नहीं आ सकती कि कुछ अच्छा हो जाय और बुरा कुछ भी न हो।शुभ के समान अशुभ भी बढता है।
 
 
8-           सुख और दुख का अनुभव हमारी इन्द्रियों द्वारा अनुभव होता है,ज्ञान बढने से सुख बढने लगता है,उसकी बुद्धि विकसित हो रही है,वह पहले सुख अपनी इन्द्रियों में पाता था,अब वही सुख बुद्धि की वृत्तियों को चलाने में पाता है। अब वह सुन्दर कविता पाठ करके अपूर्व सुख का स्वाद लेता है।
 
 
9-           अगर अपने देश को देखें तो, यहॉ पर धनी और विलासी लोग कम नहीं हैं,लेकिन दुःखी और कष्ट भी उन लोगों के कम नहीं हैं। अन्य देशों की अपेक्षा यहॉ पागलों की संख्या भी अधिक है।इसका कारण,यहॉ के लोगों की वासनाएं अत्यन्त तीव्र और प्रवल हैं । कुछ लोगों के खर्च एक क्षण में इतने अधिक हैं कि अन्य लोगों की उतनी कमाई जिन्दगीभर की नहीं है। हम उन्हैं उपदेश भी नहीं दे सकते,इसलिए कि समाज उनकी इतनी उपेक्षा करता है कि वे सिर तक नहीं उठा सकते हैं।
 
 
10-           यह सामाजिक चक्र दिन-रात घूम रहा है,सर्वत्र यही अवस्था है, वह विधवाओं के आंसुओं और अनाथों के दुख से नहीं रुक सकता।अगर आपको ही देखें तो आपकी भोग सम्बन्धी धारणॉ काफी विकसित है,आपका समाज अन्य से अधिक सुन्दर है,आपके पास विषय. भोगों के साधन भी काफी अधिक हैं,लेकिन जिनके पास आपकी अपेक्षा साधन-सामग्री कम है वे तो आपसे अधिक सुखी हैं । लेकिन यदि आपके मन में आदर्श जितना ऊंचा होगा,आप उतने अधिक सुख का अनुभव करेंगे,और उसी परिमॉण में दुःख भी। एक मानो दूसरे की छाया के समान है। हॉ यह बात सही है कि अशुभ कम होता जा रहा है ,लेकिन इसके साथ शुभ भी कम हो रहा है।
 
 
11-           वैसे अगर देखें तो शुभ कम हो रहा है जबकि अशुभ की वृद्धि तीव्रगति से हो रही है। और इसी का नाम माया है। यह न आशावादी है और निराशावादी। यहॉ केवल सुख है,केवल फूल हैं,केवल सौन्दर्य है,बस हम सारे जीवन इन्हीं बातों का स्वप्न देखते रहते हैं। लेकिन यदि किसी ने दूसरे की अपेक्षा अधिक दुख भोगा है तो इस वजह दुखमय संसार कहना भी भूल है,क्योंकि यह संसार अच्छे बुरे का खेल है। अच्छी और बुरी दो पृथक वस्तुएं नहीं हैं,बल्कि एक ही वस्तु है। एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न रूप से भिन्न-आकार में एक ही मन में भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न करती हैं।
 
 
12-           ईरान मैं तो पुराने मत के अनुसार दो देवताओं ने मिलकर इस जगत की रचना की थी,शुभ देवता और अशुभ देवता ।ऐसा भी नहीं कि अशुभ देवता केवल अशुभ कार्य करता है,और शुभ देवता केवल शुभ कार्य करता है,बल्कि दोनों मिलकर कार्य करते हैं।
 
 
13-           यह जगत न आशावादी है और न निराशावादी, बल्कि दोनों का मिश्रण है । अगर देखें तो इन दोषों को प्रकृति के कन्धों से हटाकर हमारे कन्धों पर रख लिया गया है। लेकिन हमारे वेद हमें यहॉ से बाहर निकलने का मार्ग भी बताते हैं।
 
 
14-           हम किसी बच्चे का आंख बन्द करके उस सत्य को छुपा नहीं सकते हैं,क्योंकि आंख खुलने पर वह पकड में आ ही जायेगैा। मैंने एक कहानी पढी थी जिसमें किसी युवक का पिता मर गया था,जिससे वह असहाय हो गया,और अपने बडे परिवार का भार उसके कन्धों पर आ गया था ।उसने देखा कि उसके पिता के मित्रगण ही उनके मुख्य शत्रु हैं। एक दिन एक मंगल नामका आदमी उस लडके के स्वर्गीय पिता के सम्बन्ध में किसी दूसरे से सॉत्वना देने के लिए कह रहा था कि- जो होता है अच्छा ही होता है,जो कुछ होता है अच्छे के लिए होता है।यह पुराने घाव को ढकने का एक ढंग था। इस तरह की बातें हमारी अज्ञानता और दुर्वलता का परिचायक है। लेकिन कुछ माह बाद उसी आदमी मंगल के घर में एक सन्तान हो गई,खुशी में उत्सव मनाया गया,उसमें वह युवक भी आमंत्रित था। मंगल कहने लगे कि-ईश्वर की कृपा के लिए धन्यवाद। उसी क्षण वह युवक खडा होकर कहने लगा कि आप यह क्या कह रहे हैं ?उसकी कृपा है कहॉ ?यह तो घोर अभिशाप है !मंगल ने पूछा ,कैसे ?युवक ने उत्तर दिया,जब मेरे पिता की मृत्यु हुई थी तब आपने अमंगल होने पर भी मंगल कहा था। इस समय आपकी संतान हुई है,इसपर आपको मंगल लग रहा है! लेकिन मुझे तो यह महान अमंगलकारी दिख रहा है। यहॉ पर यह प्रश्न उठता है कि क्या दुःख-अमंगल को ढक कर रखना ही संसार का दुख दूर करने का उपाय है ? इसलिए सबसे पहले स्वयं अच्छे बनो और जो कष्ट पा रहे हैं,उनके प्रति दया करो। गठ-जोड करने की चेष्ठा न करो,इससे संसार का दुख दूर नहीं होगा, इसके लिए हमें इस जगत के अतीत में जाना होगा।
 
 
15-           यह भी सत्य है कि यह जगत हमेशा भले और बुरे का मिश्रण है,जहॉ भलाई देखो,समझ लो कि उसके पीछे बुराई भी छिपी है। लेकिन हमारे वेद कहते हैं कि बुराई छोडो और भलाई भी छोडो।ऐसा होने पर फिर वह चीज शेष रह जाती है जो वास्तव में तुम्हारी अपनी है,जो वास्तव में तुम्हीं हो,जो कि शुभ और अशुभ के अतीत हैं। आशावादी होने के लिए पहले इन बातों को जानना होगा, ऐसा करने पर ही तुम सब पर विजय प्राप्त कर सकोगे।तब तुम उस सत्य को अपनी इच्छानुसार व्यक्त कर सकोगे। लेकिन इससे पहले तुम्हैं स्वयं अपना ही प्रभु बनना पडोगा।इसलिए उठो अपने को मुक्त करो,इसके लिए तुम्हैं समझना होगा कि तुम प्रकृति के दास नहीं हो,न कभी थे और न कभी होंगे-भले ही प्रकृति अनन्त मालूम पडे,पर वह समुद्र का एक बिन्दु मात्र है,और तुम तो वास्तव में समुद्र स्वरूप हो,तुम चंन्द्र,तारे, सभी के अतीत हो।यह जान लो कि तुम अच्छे और बुरे दोनों पर विजय पा लोगे। तब तुम्हारी दृष्टि परिवर्तित हो जायेगी,फिर तुम खडे होकर कह सकोगे कि-मंगल कितना सुंदर है और अमंगल कितना अद्भुत!
 
 
16-           हमारा जीवन एक कठोर सत्य है,इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह बज्र के समान अभेद्य लगता है,लेकिन आत्मा इसकी अपेक्षा अनन्तगुनी शक्तिमान है। जो भी हो हमारा वेद कहते हैं कि हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं,हम अपने ही कर्म से अच्छे और बुरे फल भोग रहे हैं। हम अपने हाथों अपने आंखें मूंदकर कहते हैं -अन्धकार है।हाथ हटा लो तो प्रकाश दिख जायेगा। हम ज्योतिश्वरूप हैं,उस एक को देखो और मुक्त हो जाओ।
 
 
17-           क्या हम इस बात को जान सकते हैं कि,हमारा मन इतना भ्रमित और दुर्वल है कि थोडी सी बात में विभिन्न दिशाओं में दौड जाता है। इस मन को सबल किया जा सकता है,इस मन को उस एकत्व का आभास कराया जा सकता है,जो पुनःपुनः मृत्यु के हाथों से हमारी रक्षा करता है। जिस प्रकार जल पहाडों में बरसकर अलग-अलग जगह से बहता है उसी प्रकार मनुष्य उस परम शक्ति के गुणों को अलगःअलग देखता है,लेकिन वास्तविक शक्ति तो एक ही है,माया में पडकर अलग-अलग हो गई है।अनेक के पीछे मत दौडो,उसी एक की ओर अग्रसर होओ। वही मनुष्य,देवता,यज्ञ और आकाश में है,वही जल में,पृथ्वीपर,यज्ञ में,और पर्वत पर उत्पन्न होता है ।वह सत्य है वह महान है।
 
 
18-           जिस प्रकार एक अग्नि इस जगत में प्रविष्ट होकर वाह्य वस्तु के रूप में भिन्न-भिन्न रूप धारण करती है,उसी प्रकार वह एक अन्तरात्मा नाना वस्तुओं के भेद से अलग-अलग रूप धारण किये हुये है।जब तुम उस एकत्व की उपलब्धि महशूस करोगे,तभी तो वह अवस्था आयेगी।
 
 
  19-           एक प्रश्न यह भी उठता है कि-अगर अनन्त आत्मा जब सबके भीतर प्रवेश कर विद्यमान रहती है तो फिर क्यों वह दुख भोग करती है? इसमें अपनिषद के अनुसार वह आत्मा दुःख का अनुभव नहीं करती है बल्कि जिस प्रकार पीलिया हो जाने पर हमें सब कुछ पीला दिखाई पडता है,लेकिन इसका सूर्य पर कोई प्रभाव नहीं पडता है। उसी प्रकार सब प्राणियों की अन्तरात्मा है,जो अपने एक रूप को अनेक प्रकार का कर लेते है, उसका दर्शन ज्ञानी पुरुष नित्य सुख के रूप में ,और अज्ञानी दुःख के रूप में करते हैं।
 
 
20-           जिस प्रकार दर्पण में लोग अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट देखते हैं,उसी प्रकार आत्मा में ब्रह्म का दर्शन होता है। हमारी आत्मा सर्वोच्च स्वर्ग है,मानव आत्मा ही पूजा के लिए सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है,वह सभी स्वर्गों से श्रेष्ठ है।इसका कारण उस आत्मा में उस सत्य का जैसा स्पष्ट अनुभव होता है,वैसा और कहीं भी नहीं होता है।
 
 
21-जब हमारी इन्द्रियॉ संयमित हो जाती हैं,जब मनुष्य उनको अपना दास बनाकर रखता है, तो वे मन को चंचल नहीं कर सकती हैं,उसी समय योगी चरम गति को प्राप्त होता है।
 
 
 22-           जब सब कामनाएं हमारे ह्दय का आश्रय लेकर रहती हैं,और वे नष्ट हो जाती है तो मनुष्य उस समय अमर हो जाता है।
 
 
23-           कुछ लोगों का मत है कि वेद दर्शन और धर्म मानव को इस जगत के सुखों एवं संघर्षों को छोडकर इससे बाहर जाने का उपदेश देते हैं।लेकिन यह धारणॉ गलत है,ऐसे अज्ञानी लोग इस चिंतन के विषय में कुछ नहीं जानते हैं,लगता है उनके पास यथार्थ शिक्षा समझने योग्य बुद्धि ही नहीं है। जबतक हम दुर्वल रहेंगे,तब तक हमें स्वर्ग-नरक आदि में घूमना पडेगा।जो कुछ सत्य है,वह यही है कि वह है मनुष्य की आत्मा।
 
 
23-           अमेरिका के एक विद्वान इंगरसोल का धर्म के सम्बन्ध में मत है कि धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है,परलोक को लेकर अपना मस्तिष्क खराब करने की आवश्यकता नहीं है।एक उदाहरण देते हुये उन्होंने समझाया कि यह संसार मानो एक संतरा है और हम उसका सब रस निकालना चाहते हैं । उनका आशय इस संसार में आये हैं तो खूब खा पी लें । लेकिन मनुष्य का कर्तव्य इतना ही नहीं होना चाहिए,यह तो तुच्छ विचार है,केवल खाने पीने के लिए ही मनुष्य का जन्म नहीं होता है। फल केवल संतरा ही नहीं है फल तो कई प्रकार के हैं सबके मर्म को जानना भी जरूरी है।

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