सत्य की खोज
1- चरित्र हमारा आचरण है
हमारा चरित्र हमारे आचरण का दर्पण है।इसलिए चरित्र आचरण का ही नाम है ,क्योंकि हम जैसे हैं वैसे ही आचरण करते हैं, यही हमारा चरित्र है ।यदि हम अच्छे नहीं हैं तो हम अच्छा आचरण नहीं कर सकते हैं।चरित्रवान की पहचान है कि क्रोध,हर्ष,लोभ,अहंकार,तथा शत्रुता का अभाव,सत्य बोलना,आहार का संयम,दूसरों के दोषों को प्रकट न करना,ईर्ष्या न करना,अच्छी बातों के लिए दूसरों के साथ सहभागिता करना,शॉति,आत्म संयम,सभी जीवों के प्रति मैत्री,क्रूरता का अभाव,सरलता,सौम्यता,और सन्तोष।ये बातें मानव जीवन की सभी अवस्थाऔं के लिए हर क्षण उपयोगी हैं ।
2- द्वैष-भाव से बचें
कभी-कभी न चाहते हुये भी हमारे अन्दर दूसरे के प्रति द्वैष भाव पैदा हो जाते हैं,इससे बचने के लिए अगर हम इस द्वैष-भाव की तरंग के विपरीत भाव की तरंग को मन में उठा देते हैं तो द्वैष-भाव की तरंग दब जाती है।जैसे हमारे अन्दर क्रोध की एक तरंग उठ जाती है, उस क्रोध को वश में करने के लिए अगर हम उसके विपरीत भाव की एक तरंग को उठा ठेते हैं तो क्रोध की तरंग दब जाती है।अर्थात क्रोध आने पर प्रेम की बात मन में लाते हैं तो क्रोध की तरंग प्रेम की तरंग से दब जाती है जिससे क्रोध का आवेश कम हो जाता है। जैसे जब कभी पत्नी अपने पति पर गर्म हो जाती है और उसी समय उसका बच्चा वहॉ आ जाता है वह उसे उठाकर गोद में लेकर चूम लेती है,यहॉ पर बच्चे के प्रति प्रेम की तरंग उठ जाती है जो कि पहले की तरंग को दबा देती है। इसी प्रकार जब कभी चोरी का भाव उठे तो चोरी के विपरीत भाव का चिंतन करना चाहिए ।
कभी-कभी न चाहते हुये भी हमारे अन्दर दूसरे के प्रति द्वैष भाव पैदा हो जाते हैं,इससे बचने के लिए अगर हम इस द्वैष-भाव की तरंग के विपरीत भाव की तरंग को मन में उठा देते हैं तो द्वैष-भाव की तरंग दब जाती है।जैसे हमारे अन्दर क्रोध की एक तरंग उठ जाती है, उस क्रोध को वश में करने के लिए अगर हम उसके विपरीत भाव की एक तरंग को उठा ठेते हैं तो क्रोध की तरंग दब जाती है।अर्थात क्रोध आने पर प्रेम की बात मन में लाते हैं तो क्रोध की तरंग प्रेम की तरंग से दब जाती है जिससे क्रोध का आवेश कम हो जाता है। जैसे जब कभी पत्नी अपने पति पर गर्म हो जाती है और उसी समय उसका बच्चा वहॉ आ जाता है वह उसे उठाकर गोद में लेकर चूम लेती है,यहॉ पर बच्चे के प्रति प्रेम की तरंग उठ जाती है जो कि पहले की तरंग को दबा देती है। इसी प्रकार जब कभी चोरी का भाव उठे तो चोरी के विपरीत भाव का चिंतन करना चाहिए ।
3- झूठ के पाप का फल
झूठ कहना पाप है,लेकिन उतना ही पाप तब होता है जब हम दूसरे के झूठ का अनुमोदन करते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि चाहे तुम पर्वत की किसी भी कन्दरा में बैठकर कोई पाप-चिन्तन कर रहे हो,किसी के प्रति घृणॉ का भाव का पोषण कर रहे हो,तो वह चिंतन भी संचित होता रहता है,और कालॉतर में वह तुम्हारे पास किसी दुख के रूप में आकर तुम पर प्रवल आघात करेगा।यदि तुम अपने ह्दय से ईर्ष्या और घृणॉ का भाव चारों ओर बाहर भेजोगे,तो वह चक्रवृधि व्याज सहित तुम पर आकर गिरेगा। दुनियॉ की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती है। क्योंकि तुमने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया,तो फिर निश्चित रूप से तुम्हैं उसका प्रतिघात सबन करना ही पडेगा। इसलिए हमें हमेशा इस बात ध्यान रखना होगा कि कभी भी बुरी बात मन में न आने दें।
झूठ कहना पाप है,लेकिन उतना ही पाप तब होता है जब हम दूसरे के झूठ का अनुमोदन करते हैं। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि चाहे तुम पर्वत की किसी भी कन्दरा में बैठकर कोई पाप-चिन्तन कर रहे हो,किसी के प्रति घृणॉ का भाव का पोषण कर रहे हो,तो वह चिंतन भी संचित होता रहता है,और कालॉतर में वह तुम्हारे पास किसी दुख के रूप में आकर तुम पर प्रवल आघात करेगा।यदि तुम अपने ह्दय से ईर्ष्या और घृणॉ का भाव चारों ओर बाहर भेजोगे,तो वह चक्रवृधि व्याज सहित तुम पर आकर गिरेगा। दुनियॉ की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती है। क्योंकि तुमने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया,तो फिर निश्चित रूप से तुम्हैं उसका प्रतिघात सबन करना ही पडेगा। इसलिए हमें हमेशा इस बात ध्यान रखना होगा कि कभी भी बुरी बात मन में न आने दें।
4- एक योगी ब्रह्मचर्यवान होता है
आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यवान का होना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के विना आध्यात्मिक शक्ति आ ही नहीं सकती है।जितने भी महॉन मस्तिष्कवाले पुरुष हुये हैं,वे ब्रह्मचर्यवान ही थे।इससे आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त होती है।मानव समाज में जो भी आध्यात्मिक नेतागण हुये हैं वे ब्रह्मचर्यवान थे। ब्रह्मचर्य से ही उन्हैं शक्ति प्राप्त हुई है ।
आध्यात्मिक शक्ति की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्यवान का होना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के विना आध्यात्मिक शक्ति आ ही नहीं सकती है।जितने भी महॉन मस्तिष्कवाले पुरुष हुये हैं,वे ब्रह्मचर्यवान ही थे।इससे आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त होती है।मानव समाज में जो भी आध्यात्मिक नेतागण हुये हैं वे ब्रह्मचर्यवान थे। ब्रह्मचर्य से ही उन्हैं शक्ति प्राप्त हुई है ।
5- सत्य की शक्ति का प्रतिष्ठित होना
जब किसी योगी में कर्म फल प्राप्त करने की शक्ति पैदा हो जाती है तो,अद्भुत चमत्कार दिखने लगता है। यह योगी आप भी हो सकते हैं।जब सत्य की यह शक्ति आपमें प्रतिष्ठित हो जाती है तो आप स्वप्न में भी झूठ नहीं कहेंगे।मन और वचन से सत्य ही बाहर आयेगा, तब तुम जो भी कहोगे,वही सत्य हो जायेगा। यदि तुम किसी को कृतार्थ होने को कहो तो- वह उसी क्षण कृतार्थ हो जायेगा। यदि किसी रोगी व्यक्ति से कहोगे कि रोग मुक्त हो जाओगे तो वह उसी समय स्वस्थ हो जायेगा।
जब किसी योगी में कर्म फल प्राप्त करने की शक्ति पैदा हो जाती है तो,अद्भुत चमत्कार दिखने लगता है। यह योगी आप भी हो सकते हैं।जब सत्य की यह शक्ति आपमें प्रतिष्ठित हो जाती है तो आप स्वप्न में भी झूठ नहीं कहेंगे।मन और वचन से सत्य ही बाहर आयेगा, तब तुम जो भी कहोगे,वही सत्य हो जायेगा। यदि तुम किसी को कृतार्थ होने को कहो तो- वह उसी क्षण कृतार्थ हो जायेगा। यदि किसी रोगी व्यक्ति से कहोगे कि रोग मुक्त हो जाओगे तो वह उसी समय स्वस्थ हो जायेगा।
6- आत्मा में कोई लिंग भेद नहीं होता है
जो पूर्ण योगी होना चाहते हैं,उन्हैं स्त्री-पुरुष का भेद भाव छोड देना होता है। क्योंकि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है-न स्त्री और न पुरुष, तो फिर क्यों वह स्त्री-पुरुष के भेद-भाव से अपने को कलुषित करें?क्योंकि उपहार ग्रहण करने वाले मनुष्य के मन में दाता के मन का असर पडता है,इसलिए ग्रहण करने वाले के भ्रष्ठ हो जाने की सम्भावना रहती है। दूसरे के पास से कुछ ग्रहण करने से मन की स्वाधीनता चली जाती है और हम मोल लिए हुए गुलाम के समान दाता के अधीन हो जाते हैं।इसलिए किसी प्रकार का उपहार ग्रहण करना भी उचित नहीं है।
जो पूर्ण योगी होना चाहते हैं,उन्हैं स्त्री-पुरुष का भेद भाव छोड देना होता है। क्योंकि आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है-न स्त्री और न पुरुष, तो फिर क्यों वह स्त्री-पुरुष के भेद-भाव से अपने को कलुषित करें?क्योंकि उपहार ग्रहण करने वाले मनुष्य के मन में दाता के मन का असर पडता है,इसलिए ग्रहण करने वाले के भ्रष्ठ हो जाने की सम्भावना रहती है। दूसरे के पास से कुछ ग्रहण करने से मन की स्वाधीनता चली जाती है और हम मोल लिए हुए गुलाम के समान दाता के अधीन हो जाते हैं।इसलिए किसी प्रकार का उपहार ग्रहण करना भी उचित नहीं है।
7- उच्च ज्ञान (सत्य)की खोज
हमारे योगी लोग ज्ञानके सम्बन्ध में कहते हैं कि ज्ञान एक के बाद एक करके सात स्तरों में आता है। और उनमें एक अवस्था आती है कि हम निश्चित रूप से जान सकते हैं कि हमें ज्ञान की प्राप्ति हो रही है।
1- जब पहली अवस्था प्रारम्भ होती है तो हमारी ज्ञान पिपासा बनी रहती है,हम इधर-उधर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। जहॉ भी कुछ सत्य मिलने की सम्भावना बनी रहती है,झट से वहीं दैड जाते हैं। यदि वहॉ उसकी प्राप्ति नहीं होती है तो मन अशॉत हो जाता है। फिर अन्य दिशा में हम सत्य की खेोज में भटकते फिरते हैं। जबतक हम यह अनुभव नहीं कर लेते हैं कि सत्य. हमारे अन्दर है,जबतक यह दृढ धारणॉ नहीं हो जाती कि कोई भी हमें सत्य की प्राप्ति करने में सहायता नहीं पहुंचा सकता,इसके लिए हमें स्वयं अपने आप की सहायता करनी होगी। फिर हम अपने विवेक का अभ्यास प्रारम्भ करते हैं,तो हम सत्य के नजदीक आने लगते है। फिर पूर्व का वह असंतोष धीरे-धीरे समाप्त होता जायेगा। फिर यह धारणॉ बन जायेगी कि हमने सत्य को पा लिया,और यह सत्य के सिवा और कुछ भी नहीं है। हम जान लेते हैं कि सत्य का सूर्य उदित हो रहा है। हमारे ह्दय में प्रभात की लाली जैसी छाने लगती है।
2- दसरी अवस्था में हमारे सारे दुख चले जायेंगे। इस जगत का बाहरी और भीतरी कोई भी विषय हमें दुख नहीं पहुंचा सकेगा।
3- तीसरी अवस्था में हमें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है,हम सर्वज्ञ हो जायेंगे।
4- चौथी अवस्था में अपने विवेक की सहायता से सारे कर्तव्यों का अन्त हो जायेगा। फिर चिंताविमुक्ति की अवस्था आयेगी ।फिर हम समझ सकेंगे कि हमारी सारी विघ्न वाधैयें चली गईं है।
5- पॉचवें अवस्था में मन की चंचलता,संयम,की असमर्थता आदि सभी नष्ट हो जाएंगे।
6- छटी अवस्था में हमारा चित्त समझ लेगा कि इच्छा मात्र से वह अपने कारण में लीन हो जा रहा है ।
7- अन्तिम सातवें अवस्था में हम देखेंगे और अनुभव करेंगे कि-मन या शरीर के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, आजतक अज्ञानतावश हमने अपने आपको उनसे सम्बद्ध रखा था। हम अकेले हैं। इस संसार में हम सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी और सदानन्दस्वरूप हैं। हमारी आत्मा इतनी पवित्र और पूर्ण है कि हमें और किसी की आवश्यकता नहीं है। हमें सुख की प्राप्ति के लिए और कुछ भी नहीं करना था ,क्योंकि हम खुद सुख स्वरूप हैं।हम ज्ञान के लिए किसी पर निर्भर नहीं हैं । इस जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे ज्ञान लोक से प्रकाशित न हो। यही एक योगी की अंतिम अवस्था मानी जाती है। फिर योगी धीरे-धीरे और शॉत हो जाते हैं। वे और कोई कष्ट अनुभव नहीं करते हैं,वे कभी अज्ञान मोह से भ्रमित नहीं होते,दुख उन्हैं छू नहीं सकता है वे जान लेते हैं कि मैं न्त्यानन्दस्वरूप और सर्वशक्तिमान हूं।
Comments