परमात्मा के दर्शन











1-परमात्मा की खोज का सवाल-
 
 
          अगर हम परमात्मा की खोज की बात करते हैं तो,यह हमारा केवल एक भ्रम होगा, क्योंकि इस सम्बन्ध में अब खोजने के लिए विशेष कुछ भी नहीं है। इस सम्बन्ध में यही सत्य है कि परमात्मा है और उसका पूर्ण स्तित्व है।जो सब कुछ है वही परमात्मा है। परमात्मा तो एक विश्व महान व्यापकता है। और परम नियम है। हम परमात्मा को किसी स्थान विशेष में नहीं खोज सकते हैं। क्योंकि वह स्वयं में पूर्ण और अखंण्ड है ।अगर आप किसी स्थान में परमात्मा का इशारा करते हैं तो यह गलत होगा। क्योंकि वह तो हर कण में है हर दिशा में है,जहॉ जाओ मिल सकेगा। लेकिन होता क्या है कि यह मन मानता नहीं है,यही तो इस मन की समस्या है, कि वह एक विशिष्ठ चीज की खोज करना चाहता है। मन कल भी खोज रहा था आज भी खोज रहा है,और कल भी खोजेगा,अपने पूर्व जन्मों में भी खोज रहा था,इस जीवन में क्या भविष्य के जन्मों में भी उसे खोजेगा। खोजने की एक आदत जैसी बन गई है। हमारे अन्दर खोजने का एक ढॉचा बन गया है उसे गिराना होगा । यह मन बहुत संकीर्ण है,वह एकाग्रता से उसे खोजने लगता है। जबकि एकाग्रता से परमात्मा को खोजा नहीं जा सकता है।एकाग्रता से तो मन को किसी चीज पर केन्द्रित किया जा सकता है। एकाग्रता का लक्ष्य कहीं पहुंचने का इरादा है,जहॉ कि एक खोज करनी है।
 
 
2-परमात्मा की पहचान की दृष्टि-
 
           एकाग्रता तो परमात्मा के निकट जाने के लिए मन का एक मार्ग है ,साधना करनी होगी। मन को विश्राम करने की साधना करनी होगी। एकाग्र मन जिसका कि कहीं पहुंचने का इरादा होता है। इसके लिए हमें परमात्मा की खोज का इरादा छोडना होगा,तभी तो हम उसे पा सकते हैं।अगर खोजते हैं तो पा नहीं सकेंगे। जो कुछ हमारे चारों ओर है,उसी के साथ हमें बना रहना है,वैसे भी आज तक हमने उसे एक क्षण भी नहीं छोडा है,इसलिए कि उसके विना हम जीवित नहीं रह सकते हैं ।यही तो हमारा जीवन है,हमारा स्तित्व है। हम भोजन के विना महीनों जीवित रह सकते हैं,पानी के विना कुछ दिनों जीवित रह सकते हैं,कुछ क्षण के लिए वायु के विना भी जीवित रह सकते हैं,लेकिन परमात्मा के विना हम एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते हैं। और इसे कहीं तलासने की आवश्यकता भी नहीं है। वह तो अपने ही पास है। लेकिन इस संसार में लोग उसे तलासने में लगे रहते हैं। एक दिन वह धन,शक्ति और प्रतिष्ठा खोज रहा था,अब वह परमात्मा का आशीर्वाद और स्वर्ग खोज रहा है। लोग खोजते रहते हैं लेकिन कभी पाते नहीं हैं ,क्योंकि पाने का मार्ग खोजना नहीं है। उसने केवल खोज की वस्तु बदली है,जीवन भर उसकी तलास बनी रहती है।जबकि परमात्मा की स्थिति तो पहले जैसी है । हम ठीक उस मछली की तरह हैं जो पहले से ही सागर में है। हो सकता है सागर की विशालता से हम उसे देख न पाये हों। हम उसी में जन्में हैं,उसी में पले बढे हैं और उसी में लुप्त हो जायेंगे। बस यह प्रश्न पहचान का है खोजने का नहीं।
 
 
 
3-परमात्मा के रूप में जीने का आनन्द लें-
 
            जी हॉ परमात्मा को खोजने नहीं बल्कि परमात्मा के रूप में जीने की बात है । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खोजते नहीं हैं बल्कि उसे मनाते हैं, उन्हैं कुछ भी उपव्ध हो,उसी में प्रशन्न रहते हैं। अगर हम परमात्मा को समझ गये हैं तो फिर उसका आनन्द लो,उसे समारोह या त्यौहार के रूप में देखो,वह हमारी ही प्रतीक्षा में है,उसके साथ नाचो और आनन्द मनाओ। इसके लिए हमें मुक्त होना होगा,अपनी इच्छाओं से मुक्ति,खोज से मुक्ति,संकीर्ण मस्तिष्क से मुक्ति । परमात्मा कहीं भविष्य में नहीं है,यदि हम आनन्दित है,प्रशन्न हैं,यदि हम उत्सव मना रहे हैं तो उसे हम अपने बगल में पायेंगे। परमात्मा कोई वस्तु नहीं है,वह तो एक तरीका है,या एक दिशा है यह आनन्द के समारोह को मनाने का एक ढंग है। इसलिए उदासी छोडो, वह तुम्हारे निकट है,अपने छोटे-छोटे दुखों और चिन्ताओं को भूल जाओ,महत्वहीन चीजों के बारे में मत सोचो।, उसे अपने हाथ थामने की स्वीकृति देदो। लम्बे समय से वह प्रतीक्षा में है। अगर तुम उसे खोज रहे हो तो तुम उसे कहीं भी नहीं पा सकोगे। क्योंकि खोजने वाला मन कभी सत्य तक नहीं पहुंच सकता है।
 
 
 
4-समर्पण में परमात्मा को देखें-
 
           मैं जो भी कार्य करता हूं वे सब उसी के हैं,जब में स्नॉन करता हूं तो मैं उसे नहला रहा होता हूं,जब मैं भोजन करता हूं तो वह ही खाता है,जब मैं तृप्त होता हूं तो वह ही तृप्त होता है। जब मैं गीत गाता हूं तो वह ही मेरे अन्दर गा रहा होता है,और वही उसका श्रोता भी है। हर क्षण और हर कर्म उसकी उपस्थिति में आलोकित हो उठता है। वही मुझे जगाता है,अगर में सोता हूं तो वह सोते हुये विश्राम करता है। मैं किसी मठ या मन्दिर की बात नहीं कर रहा हूं,बल्कि यह मेरा वह जीवन है जो पूर्णतः विना शर्त परमात्मां को समर्पित है,इसलिए वह चाहता है कि तुम जीवित रहो। उसने मुझे अपना उपकरण बनाने के लिए चुना है। तभी तो मेरी प्रत्येक चीज अत्यधिक सुन्दर बन जाती है। फिर में अपने चारों ओर उस परमात्मा की उपस्थिति में कृतज्ञता का अनुभव करता हूं,फिर मेरा स्तित्व एक प्रार्थना बन जाता है। जब हम परमात्मा को अपने निकट महसूस करते हैं तो कृतज्ञता स्वयं उमड पडती है। उसके प्रति का सम्मान भाव कुछ इस तरह का है,जो कि हमसे परे का है। हमको सिखाया गया कि अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञ बनो,अपने शिक्षकों के प्रति कृतज्ञ बनो,अपने से बडों के प्रति कृतज्ञ बनो,लेकिन यह तो आदतों में ढालने का प्रयास है। असली कृतज्ञता का जन्म तब होता है जब तुम देख सकते हो कि जो कृतज्ञता सिखाई गई वह तो केवल एक धारणॉ थी तुम एक मशीन की तरह उसका पालन कर रहे थे ,असली कृतज्ञता तब शुरू होती है जब पहली बार यह अनुभव होता है कि प्रार्थना क्या होती है,और क्या होता है प्रेम।
 
 
 
  5-खोज करने बाले शोर अधिक करते हैं-
 
 
          जी हॉ होता क्या है कि जो लोग परमात्मा की तलाश में होते हैं ,वे इस बारे में शोर अधिक करते हैं,क्योंकि वे इस सम्बन्ध में वेखवर होते हैं,और जब वे अंत में वहॉ पहुंचते हैं तो,वे पाते हैं कि वहॉ कुछ भी नहीं है। वे लोग परमॉनंद के आध्यात्मिक अनुभव जैसी कोई चीज नहीं जानते हैं,उन्होंने परमात्मा की कोई उपस्थिति महसूस नहीं की है,उन्हैं तो सजग होने की जरूरत नहीं होती है। लेकिन जिस व्यक्ति को उसका अनुभव है,जिसने एक झलक देखी है, उसे तो सावधान रहना होगा। उसे उसकी जडें और गहराई तक ले जाना है,जिससे अंकुर मजबूत हो जाय और जो कुछ नयॉ है,उसकी जडें तुम्हारे स्तित्व में और अधिक गहराई तक उतर जाये। फिर देख कर आश्चर्य में पड जाओगे कि जिस चीज के लिए तुम जन्-जन्मों से खोज कर रहे हो,जो कभी वहॉ थी ही नहीं,वह तो तुम्हारे ही पास थी और उसे खोजने की कोई जरूरत ही नहीं थी ।

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