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Showing posts from December, 2012

सुख-दुख के रूप

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1-             जी हॉ सुख-दुख के भी अजीवोगरीव रंग है,कभी एक रुप में तो कभी दूसरे रूप में दिखता है। मैं एक मैगजीन में एक कहानी पढ रहा था ,कि रोम में एक धनी व्यक्ति को एक दिन जब इस बात का पता चला कि उसके पास अब केवल दस लाख डॉलर शेष हैं,तो उसने सोचा कि आगे अब मेरा काम कैसे चलेगा । तो उसने उसी क्षण आत्महत्या कर ली। उसके लिए दस लाख डॉलर कुछ भी नहीं था,लेकिन हम लोगों के लिए तो पूरे जीवन की आवश्यकता से भी यह अधिक था। अगर हमारे पास ये डॉलर होते तो हम खुश हो जाते, मगर उस धनी के पास होने पर वह दुखी हो गया। अगर देखें तो ये सुख और दुख क्या है?ये तो सतत् परिवर्तन शील हैं,लगातार विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं।      2-             मुझे अपने बचपन की .याद आती है कि मैं सोचता था कि बडा होकर मेरी अपनी गाडी होगी तो मैं सुख की पराकाष्ठा पर रहूंगा। लेकिन अब मैं बडा हो गया मगर अब मैं ऐसा नहीं सोचता। जीवन में लोग अलग-अलग प्रकार के सुख को पकडकर रखते हैं । एक ब्यक्ति हर दिन श...

आत्मानुभूति

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   1-          हमारे सामने जीवन के प्रारम्भ में यह प्रश्न आया कि इस बाहरी जगत की रचना कहॉ से हुई ? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? फिर एक विचार और उत्पन्न हुआ कि मनुष्य के अन्दर कौन सी ऐसी चीज है,जो उसे जीवित रखती है और उसे चलाती है,और मृत्यु के बाद मनुष्य का क्या होता है। हमारे प्राचीन दार्शनिकों ने अमर होने के सम्बन्ध में चिंतन किया था, और समय समय पर अलग-अलग तथ्य सामने आये ।       2-           जो भी हो जब हम इस पृथ्वी के सम्बन्ध में सोचते हैं तो हमारा दृष्टिकोंण मानवीय होता है।हर एक जीव की अपनी दुनियॉ होती है,जैसे यदि कुत्ता दार्शनिक होता तो वह अपने कुत्ता जगत के बारे में ही सोचता, उसे ईश्वर से कोई मतलव नहीं। इसी प्रकार बिल्ली,गाय आदि सभी की दुनियॉ की धारणॉ अलग-अलग होती है। इसी प्रकार हम मनुष्यों की धारणॉ मनुष्य जगत तक ही सीमित है,इसलिए हमारी व्याख्या इस जगत के सम्बन्ध में पूर्ण नहीं है।       3-      ...