आस्था की नीव
आत्मा के सम्बन्ध में भारतीय चिंतन में अनेक मत हैं,अलग-अलग धमों में आत्मा को समझाने का प्रयास किया गया है। भारत में प्रचलित मतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। 1-आस्तिक और 2-नास्तिक ,जो मत हिन्दू धर्मग्रन्थों वेदों को सत्य का प्रकाश मानते हैं,उन्हैं आस्तिक और जो वेदों को न मानकर अन्य प्रमॉणों पर आधारित हैं,उन्हैं नास्तिक कहते हैं। इन्हीं विचारों की ब्याख्या करने का प्रयास करते हैं---
ईश्वर का आस्तिक स्वरूप
1- इस विचार धारा की मान्यता है कि ईश्वर सगुण है,उसका शऱीर नहीं है पर उसमें गुंण है।मानवीय गुंण उसमें विद्यमान है,जैसे-दयावान,न्यायप्रिय,सर्वशक्तिमान व बलवान उसके पास पहुंचा जा सकता है,उससे प्रार्थना की जा सकती है,उससे प्रेम किया जा सकता है आदि-आदि। अर्थात वह मानवीय ईश्वर है। इतना अन्तर है कि वह मनुष्य से अनन्त गुना बडा है। मनुष्य में जो दोष है मगर ईश्वर में दोष नहीं हैं।वह तो शुभ गुणों का भण्डार है ।
2- लेकिन इसमें पहली कठिनाई यही आती है कि उस ईश्वर में असंख्य सद्गुणों के भण्डार,दयालु,न्यायप्रिय होने पर भी उस ईश्वर के राज्य में इतने कष्ट कैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न द्वैतवादी धर्म के समक्ष है, लेकिन हिन्दुओं ने कभी इसे सुलझाने के लिए कल्पना नहीं की। हिन्दुओं ने एक मत होकर स्वयं मनुष्य को ही दोषी माना क्यों ? इसलिए कि हम अपने भविष्य का निर्मॉण स्वयं करते हैं।आज हम कल के भाग्य को निश्चित करते हैं। बस यह क्रम चलता रहता है। लेकिन यह भी देखनी वाली बात है कि अगर हम अपने कर्मों से ही भविष्य को निश्चित करते हैं तो, यही तर्क हमारे अतीत के लिए भी क्यों न लागू करें ? अगर यह सत्य है कि एक छोटी सी अवधि में हम अपने भविष्य का निर्मॉण करते है,और हर कार्य के लिए कारण अपेक्षित है,तो यह भी सत्य है कि हमारा वर्तमान हमारे सम्पूर्ण अतीत का परिणॉम है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के भाग्य के निर्मॉण के लिए मनुष्य के सिवा और किसी की जरूरत नहीं है। यहॉ जो कुछ भी अगर अशुभ दिखता है,इसके कारण हम ही हैं।हम ही सारे पाप की जड हैं। और हम यह भी देखते हैं कि पापों का परिणॉम दुखद होता है। आज हम जितने भी कष्ट देखते हैं,उनके मूल में वे पाप हैं। जिन्हैं मनुष्य ने पहले किया है। इसका दोषी मनुष्य है,ईश्वर पर कोई दोष। नहीं लगाया जा सकता है। हम जो बोते हैं वही काटते हैं।
3- इसमें एक और विचित्र सिद्धान्त है कि सभी आत्माएं एक दिन मोक्ष की प्राप्ति करती है। अनेक प्रकार के सुख-दुख भोगने पर हर आत्मा एक दिन मुक्त हो जायेगी। लेकिन प्रश्न उठता है कि मुक्त किससे होगी? इस सम्बन्ध में सभी सम्प्रदाय कहते हैं कि इस संसार से मुक्त होना है। इस संसार से परे एक स्थान है जहॉ केवल सुख और शुभ है।जब हम उस स्थान पर पहुंच जाते हैं तो,जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। वहॉ न कोई व्याधि होगी और न कोई मृत्यु । वहॉ तो शाश्वत सुख होगा और वे सदा ईश्वर के समक्ष रहते हुये परमानन्द का अनुभव करते रहेंगे। कीट से लेकर देवता तक उस लोक में पहुंचेंगे,यहॉ दुख का लेशमात्र न होगा। लेकिनयह जगत भी हमेशा बना रहेगा, सतत चलता रहेगा। हमेशा परिवर्तन के फलस्वरूप इसका कभी अन्त नहीं होगा। उच्चतम् देवता भी स्वयं में अपूर्ण हैं,बन्धन में हैं,जन्म-मरण के बन्धन में, इसलिए उन्हैं भी मरना पडेगा ।जैसे इन्द्र हैं देवताओं के राजा,यह एक पद विशेष का प्रतीक है। कोई उच्चतम आत्मा उस पद पर विराजमान है और इस कल्प के बाद वह पुनः मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। फिर कोई उच्चत्तम आत्मा उस पद पर आसीन होगी। यही बात अन्य देवताओं पर भी लागू होगी। वे विश्ष्ठ पदों के प्रतीक है।
4- जो लोग फल की आकॉक्षा से इस लोक में परोपकार तथा अच्छे कार्य करते हैं वे मरने के बाद देवता बनकर अपने किये गये फल भोगते हैं।लेकिन मोक्ष नहीं। मोक्ष फल की आशा रखने से नहीं मिलता। मनुष्य जिस चीज की आकॉक्षा रखता है, ईश्वर उसे वही देता है। आदमी शक्ति चाहता है,पद चाहता है,सुख चाहता है,उसकी इच्छाएं तो पूरी हो जाती है,मगर उसके कर्म का कोई शाश्वत फल नहीं मिलता और एक निश्चित अवधि के बाद उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। इसीलिए तो देवता मनुष्य हो जाते हैं। इसी प्रकार निम्न कोटि के जीव मनुष्य की ओर बढेंगे,फिर देवत्व की ओर,और फिर मनुष्य बनें अथवा पशु हो जायेंगे। जब तक जीवन की तृष्णॉ रहेगी, मैं और मेरा के मोह से मुक्त नहीं हो जाये तबतक यह चलता रहेगा। अगर किसी द्वैतवाद से पूछो कि क्या तुम्हारा बच्चा है,तो वह कहेगा यह तो ईश्वर का है।मेरी अपनी कोई सम्पत्ति नहीं है। सब कुछ ईश्वर का है।
5- यह अहिंसावादी विचारधारा है।लेकिन उनके विचार बौद्धों से भिन्न हैं।अगर किसी बौद्ध से पूछें कि आप क्यों अहिंसा का उपदेश देतेहैं ?तो वह कहेगा कि हमें किसी के प्रांण लेने का अधिकार नहीं है।और यदि किसी द्वैतवादी से पूछो कि आप जीव हिंसा क्यों नहीं करते? तो वह कहेगा क्योंकि सभी जीव तो ईश्वर के हैं।
6- जब मनुष्य इस स्तर पर पहुंच जाय कि मैं और मेरा उसमें न रहे,सारी चीजों को ईश्वरीय मानने लगे,हर प्राणी को प्रेम करने लगे,किसी पशु को भी अपना जीवन देने के लिए तैयार रहे। और ये सारे भाव बिना किसी प्रतिफल के हों तो उसका ह्दय स्वतः पवित्र हो जायेगा। और उस पवित्र ह्दय में ईश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होगा। ईश्वर ही सभी आत्माओं का आकर्षण का केन्द्र होता है।
7- जैसे कोई सुई मिट्टी से ढकी है तो उसपर चुम्बक का प्रभाव नहीं होगा,लेकिन जैसे ही मिट्टी को हटा देते हैं वैसे ही वह चुम्बक की ओर आकर्षित होगा। ईश्वर चुम्बक है और मनुष्य की आत्मा सुई।और पाप रूपी मल से यह ढकी होती है।
8- इसमें ईश्वर से मॉगने की प्रार्थना करने का विरोध किया गया हैं। उनका मानना है कि अगर मॉगना ही है तो निम्न जीवों से मागें देवताओं से,देवदूतों से, मॉगें । ईश्वर तो केवल प्रेम के लिए है। हॉ अगर उसे मोक्ष चाहिए तो ईश्वर की पूजा करनी चाहिए। भारत में सर्वसाधारण की यही तो मान्यता है।
9- आत्मा स्वभाव से पवित्र है,किन्तु अपने कर्मों से वह अपने को अपवित्र बना लेती है। आत्मा के अनेक गुंण हैं,लेकिन उसमें सर्वशक्तिमत्ता या सर्वज्ञता नहीं है।हर पाप कर्म से उसकी प्रकृति संकुचित हो जाती है।और पुण्यकर्म का विस्तार।
ईश्वर का नास्तिक स्वरूप
1- अगर देखें तो इसमें सबसे अधिक दर्शन और धर्म के क्षेत्र में विकास हुआ है। इसमें मानव विचार ने अपनी अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा प्राप्त कर ली है। और अकाट्य प्रतीत होने वाले रहस्यों के भी पार जा चुका है। पिछले तीन हजार वर्षों तक यह अपनी मान्यता जमाय़े है, लेकिन भारत जहॉ कि इसका जन्म स्थान है वहॉ पर यह सर्वसाधारण तक पहुचने में असमर्थ रहा है। संसार में विचारशील व्यक्तियों को भी इसे समझने में कठिनाई होती है।
2- ईश्वर स्वयं विश्व है।लेकिन यह कैसे सम्भव है? हॉ ऐसा ही प्रतीत होता है।जिसे अज्ञानी लोग विश्व कहते हैं,वस्तुतः उसका स्तित्व है ही नहीं।तब तुम और मैं और ये सारी चीजें,जिसे हम देखते है,क्या हैं? मात्र आत्म सम्मोहन। सत्ता तो केवल एक ही है और वह अनादि,अनन्त और शाश्वत शिवस्वरूप है।उस सत्ता में ही हम ये सपने देखते हैं।बस एक आत्मा ही है जो इन सारी चीजों से परे हैं।जो ज्ञात से परे हैं। हम उसी के माध्यम से विश्व को देखते हैं।एक मात्र सत्य वही है ।वही सबकुछ है।नाम और रूप से रहित। लिंग तो मानव मस्तिष्क से उत्पन्न एक कल्पना है,एक भ्रम है ।
3- आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है।जो लोग भ्रम में हैं वे पशु के समान हैं। वे पुरुष और स्त्री को देखते हैं।लेकिन जो जीते जागते देवता हैं,वे नर या नारी में अन्तर नहीं जानते हैं।जो सारी चीजों से ऊपर उठ चुके हैं,उनके लिए नर-नारी में भेद भावना कैसे हो सकती है।हर व्यक्ति आत्मा है,.पवित्र है,लिंग हीन है तथा शाश्वत शिव है।नाम और शरीर तो भौतिक हैं, जो सारी भिन्नताओं के मूल हैं।अगर तुम नाम,रूप और शरीर के अन्तर को हटा दें तो सारा विश्व एक है,तुम और मैं एक ही हैं । आत्मा की प्रतिछाया मात्र है। चूंकि प्रतिछाया अच्छे और बुरे प्रतिफल पर पडती है,इसलिए अच्छे या बुरे बिम्ब बनते हैं।यदि कोई ब्यक्ति हत्यारा है तो उसमें प्रतिफल भी बुरा होगा नकि आत्मा।और यदि कोई साधु है,तो उसमें प्रतिफल शुद्ध होगा।आत्मा तो मूलरूप में शुद्ध है।
4- एक ही सत्ता है जो कि कीट से लेकर पूर्ण विकसित प्राणी तक में प्रतिबिम्ब है। यह सम्पूर्ण विश्व एक सत्ता है ,भौतिक,मानसिक,नैतिक,आध्यात्मिक,हर दृष्टि से। इस एक सत्ता को ही हम विभिन्न रूपों में देखते हैं। हम अपने मन से अनेक विम्ब देखते हैं।जिसने अपने को मनुष्यत्व तक सीमित रख लिया उसे तो ऐसा लगता है कि यह संसार मनुष्यों का है। लेकिन जो चेतना के उच्च स्तर पर हैं,उसे यह संसार स्वर्ग सा दिखता है। सच तो यह है कि एक ही सत्ता या आत्मा अखिल ब्रह्मॉण्ड में व्याप्त है।इसका न तो आना होता है और न जाना और न यह पैदा होती है,न मरती है,और न पुनः अवतरित होती है।
5- मैं सर्वव्यापी हूं,शाश्वत हूं।मैं जा ही कहॉ सकता हूं ?मैं कहॉ नहीं हूं ?मैं तो प्रकृति की पुस्तक पढते हुये पृष्ठ उलटते जा रहा हूं।जीवन का एक-एक स्वप्न समाप्त होता जा रहा है। एक पन्ना पढता हूं,एक स्प्न समाप्त होता है,और इसी तरह यह क्रम जारी रहता है।जब मैं सारी पुस्तक पढ डालूगा तो फिर उसे एक किनारे रख दूंगा-यही मेरे खेल का अंत है। इन सारे कथनों का तात्पर्य है आत्मा का श्रेष्ठ होना। इस धारणॉ में देवताओं के स्थान पर मनुष्य की आत्मा को आसीन कर दिया,वही आत्मा जो सूर्य,चन्द्र,स्वर्ग और अखिल ब्रह्मॉण्ड से भी श्रेष्ठ है। विज्ञान मनुष्य के रूप में प्रकट होने वाली इस आत्मा की महिमा की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
6- वह समस्त ईश्वरों में श्रेष्ठ है,ईश्वर तो एक मात्र वहीं है,जिसकी सत्ता सदैव थी.सदैव है,और सदैव रहेगी। इसलिए मैं किसी अन्य को नहीं बल्कि अपनी पूजा करता हूं। मैं अपनी आत्मा की पूजा करता हूं।मैं स्वयं को नमन करता हूं।मैं किससे सहायता मॉगूं ? कौन मुझे सहायता देने वाला है ? ये तो केवल भ्रम और स्वप्न हैं।कब,किसने किसकी सहायता की ? कभी नहीं की। अगर सहायता मिलती है तो अपने अन्दर से मिलती है।वह भ्रमवश समझ लेता है कि वह सहायता बाहर से आती है। इसलिए वह भ्रमवश अपने से बाहर देवताओं की तलाश में रहता है। लेकिन जब उसके अज्ञान का चक्कर समाप्त हो जाता है,तो वह पुनः लौटकर अपनी आत्मा पर आ टिकता है। जिसे ईश्वर की तलाश में वह दर-दर भटकता रहा, वह कोई अन्य नहीं बल्कि उसकी अपनी ही आत्मा है। और वह मैं है,और मैं वह। मैं ही ब्रह्म हूं।
7- क्या यह कोई भ्रम है ?क्या यह कोई स्वप्न तो नहीं है? नहीं,यह कोई न भ्रम है और न कोई स्वप्न, सत्य कभी स्वप्न नहीं देखा!आत्मा कभी भ्रम कैसे, यह उपयुक्त नहीं है।सत्य का दर्शन होता है तो भ्रम दूर हो जाता है। भ्रम तो सदा भ्रम पर आधारित रहता है,सत्य और ईश्वर कभी भ्रम के आधार नहीं हो सकते हैं। आकाश में नीला रंग ज्यों का त्यों है मगर उसमें बादल आते हैं क्षण भर ठहरते हैं और चले जाते हैं,ये भ्रम के बादल हैं। एक ही सत्ता है,मैं और तुम कहना ही गलत है,केवल मैं कहें।मैं ही तो करोणों मुंह से खा रहा हूं ! तो फिर मैं भूखा कैसे रह सकता हूं ?मैं ही करोणों से काम करा रहा हूं तो मैं निष्क्रिय कैसे रह सकता हूं ?मैं ही समस्त विश्व का जीवन जी रहा हूं तो मेरे लिए मृत्यु कैसे ! मैं तो जीवन और मृत्यु के परे हूं। फिर मैं मुक्ति खोज कहॉ करूं ?मैं तो स्वभाव से ही मुक्त हूं। मुझे कौन बॉध सकता है ?
8- सत्य को जान लो और क्षणभर के लिए मुक्त हो जाओ।अज्ञान दूर हो जायेगा।जब मनुष्य एक बार विश्व की अनन्त सत्ता से अपने को एक कर लेता है,तब विश्व की सारी पृथकता समाप्त हो जाती है,तो फिर विश्व के सारे देवता और नर-नारी,पशु,और पौधे उस एकत्व में विलीन हो जाते हैं। तब तो भय नहीं रहता! क्या मैं अपने को चोट पहुंचा सकता हूं ?अपने को मार सकता हूं ?अपने को आघात पहुंचता सककता हूं ?डरना किससे है ?अपने आप से डर कैसे ? जब ऐसा भाव आ जायेगा,तब समस्त दुखों का अन्त हो जायेगा। मेरे दुख का कारण क्या है मैं तो समस्त विश्व की एक मात्र सत्ता हूं। तो फिर किसी से ईर्ष्या नहीं होगी,क्योंकि ईर्ष्या किससे करें ?स्वयं से ? फिर समस्त अशुभ भावनाएं समाप्त हो जाएंगी। विश्व में मेरे सिवा और कौन है ?
9- भारतीय दर्शन में द्वैतवाद से प्रारम्भ होकर अद्वैतवाद में विकसित हुआ । यह भी सत्य है कि संसार में बहुत कम लोग ही इस अन्तिम अवस्था तक आ सकते हैं या इसमें विश्वास का साहस कर सकते हैं। फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि सम्पूर्ण आध्यात्मिकता का रहस्य यही है। क्योंकि यह बात समक्ष है कि सबलोग कहते हैं कि दूसरों की भलाई करो।सभी महान लोग मानव जाति की भलाई और विश्वबन्धुत्व की बात करते हैं। इसका कारण यही है कि चाहे वे जाने या न जाने पर उनकी हर धारणॉ, अन्धविश्वास के मूल में निहित एक आत्मा का शाश्वत प्रकाश बार-बार अपनी अनन्त व्यापकता को प्रकट करता है।
10- भारतीय दर्शन अपनी चरम अवस्था पर विश्व की व्याख्या करता है कि विश्व एक ही है,पर इन्द्रियॉ भौतिक में दिखती हैं,बुद्धि को आत्माओं का संग्रह दिखता है।
11- वर्तमान समय में समाज की जो स्थिति है,उसमें दर्शन की इन अवस्थाओं की नितॉत आवश्यकता है,ये अवस्थाएं परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। हर व्यक्ति को अपना-अपना जीवन दर्शन अपने -अपने विचारों के अनुसार निश्चित करने की स्वतंत्रता है। सबका अन्त सत्य को पाना है। तब जब सारी वासनाओं का अन्त हो जायेगा।
12- आप किसी को आघात न पहुंचाएं,किसी की स्थिति को अस्वीकार न करें,जिस स्थिति में वह है स्वीकार करें और यदि आप कर सकते हैं तो उसे अपने हाथों का सहारा दें और उसे एक उच्चत्तर स्तर पर ले जाएं,पर उसे हानि न पहुंचाएं और उसे विनष्ट न करें।अन्त में तो सबको सत्य पाना ही है। जब सारी वासनाओं का अन्त हो जायेगा,तब वह नश्वर मानव ही अमर बनेगा-तब वह मानव ही ईश्वर बन जायेगा।
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