पुनर्जन्म के तथ्य
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पुनर्जन्म के सम्बन्ध में मनीषियों द्वारा शंकाओं का समाधान करने के अनेक प्रयास किये गये मगर फिर भी हमेशा अलग-अलग मत सामने आते रहे हैं। कुछ तथ्यों की विवेचना प्रस्तुत हैं-
1- होता क्या है कि हर आदमी की समझने की क्षमता अलग-अलग होती है। किसी बात को कोई जल्दी समझ लेता है और कोई देर में,और कोई समझ ही नहीं पाता है। और कुछ को ऐसा लगता है कि मुझे यह मालूम था। इसका कारण क्या है? इस सम्बन्ध में हमने पहले भी विवेचना की थी कि पूर्व में क्या, हमें तो इस जन्म की बात भी याद नहीं रहती है । शरीर नष्ट होने पर हमारी स्मृति भी नष्ट हो जाती है,तो फिर हमें वे बातें याद रहेंगी ?लेकिन वे कर्म हमारे संस्कारों के रूप में विद्यमान रह जाते हैं जो कि आत्मा के साथ जन्म लेने वाले शरीर के साथ आ जाते हैं,इसलिए फिर कभी लगता है कि यह तो हमें पहले से ही मालूम था ।
2- मानो हमने रास्ते में एक कुत्ता देखा हमने यही जाना कि वह कुत्ता ही है? जैसे ही मेरे मन में उसकी छाप पडी,वैसे ही उसे मैं अपने मन के पूर्व संस्कारों के साथ मिलाने लगा।हमें यह नहीं भूलना होगा कि हमारे पूर्व संस्कार अलग-अलग स्तरों पर उपलब्ध होते हैं।ज्यों ही नया विषय सामने आता है त्यों ही पूर्व संस्कारों के साथ उसे मिलाने लगते हैं। हम यही महशूष करते हैं कि उसी की भॉति और भी कई संस्कार वहॉ मौजूद हैं, तो हम संतुष्ट हो जाते हैं। तभी तो हमने जाना कि इसे कुत्ता कहते हैं ।क्योंकि कई संस्कारों के साथ वह मिल गया। और जब हम उस प्रकार के कोई संस्कार अपने भीतर नहीं देख पाते हैं तो,फिर हमें असन्तोष होता है। इसी को अज्ञान कहते हैं । और सन्तोष मिल जाने को ज्ञान कहते हैं ।
3- मनुष्य इस प्रकार की कई घटनाएं देखता है। संस्कारों की भी अलग-अलग श्रंखला होती है। इनमें एक श्रंखला यह भी थी कि सेव नीचे गिरता है,इसका नाम गुरुत्वाकर्षण नाम दिया गया । अर्थात हर घटना में पहले की अनुभूतियॉ से तुलना करनी होती है । अगर कभी किसी घटना से तुलना करने के लिए पहले की अनुभूतियॉ न होने पर,उसकी अनुभूति करना कठिन हो जाता है ।
4- कुछ दार्शनिक बच्चा जब पैदा होता है तो उसे संस्कार शून्य मानते है।लेकिन सच तो यह है कि बच्चा पूर्व संस्कारों के अभाव में बौद्धिक शक्ति अर्जित नहीं कर सकेगा,क्योंकि नईं अनुभूति मिलाने के लिए उसमें कोई संस्कार नहीं हैं।
5- और यह भी देखा जाता है कि हर व्यक्ति की ज्ञानार्जन क्षमता अलग-अलग होती है,इसका कारण हर एक पृथक-पृथक ज्ञान भण्डार के साथ आता है। ज्ञान तो अनुभव से ही प्राप्त होता है, जानने का कोई दूसरा उपाय भी नहीं है।
6- मृत्यु से सभी डरते हैं क्यों ?एक मर्गी का बच्चा चील के आने पर अपनी मॉ के पास भाग जाता है,मुर्गी के बच्चे ने कहॉ से जाना कि चील मुझे खा जायेगा ?बतख का बच्चा अभी तो अंडे से बाहर निकला है,तालाब के निकट जाने पर वह पानी में कैसे कूद पडती है, और तैरने लगती है? वह तो पहले कभी न तैरी और न उसने किसी को तैरते देखा है। लोग कहते हैं कि यह उनकी जन्मजात प्रवृत्ति है । लेकिन यह जन्मजात प्रवृत्ति है क्या? यह तो हमारे शव्द कोष की भाषा है।
7- एक बच्चा हारमोनियम बजाना शीखता है तो पहते वह हारमोनियम की ओर नजर रखकर अंगलुयॉ चलाता है,अभ्यास करने पर अंगलुयॉ अपने आप उन स्थानों पर चलने लगती हैं,यह स्वाभाविक हो जाता है उसे पहले ज्ञान पूर्वक इच्छा लगाना होता था अब जज्ञान पूर्वक इच्छा लगाये विना वह सम्पन्न होने लगता है। अब उसके लिए हार्मोनिय बजाना स्वाभाविक हो गया । इसी प्रकार जो भी कार्य हमारे लिए स्वाभाविक हो गये हैं,जोकि आगे के लिए हमारे संस्कार के रूप में निर्मित हो जाते हैं। और जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति कहते हैं वे यही पूर्व संस्कार हैं। इसीलिए हर व्यक्ति में रुचि भी अलग-अलग होती है।
8- बाहरी जगत में क्रमिक विकास के नियम के अन्तर्गत जन्मजात प्रवृत्ति का तो कोई उल्लेख नहीं है। इसलिए मनुष्य या पशुओं में जिसे हम जन्मजात प्रवत्ति कहते हैं वह अवश्य पूर्ववर्ती इच्छाकृत कार्य का भाव ही होगा,अर्थात पहले हमने अनुभव प्राप्त किया था,जिससे हमें यह संस्कार मिला है,जोकि अब भी मौजूद है। जैसे मरने का भय,जन्म से ही तैरने लगना,आदि सहज कार्य देखे गये हैं, वे सारे पूर्व कार्य,पूर्व अनुभूति के ही तो फल हैं। जो कि सहज रूप में परिणित हो गये हैं।
9- यह भी देखा जा रहा है कि आधुनिक वैज्ञानिक भी धीरे-धीरे प्राचीन महात्माओं से सहमत हो रहे हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य और अन्य प्राणी कुछ अनुभूतियों को लेकर जन्म लेते हैं । मन में ये सब कार्य पूर्वानुभूति के फल हैं। लेकिन वे यहॉ पर आत्मा की अनुभूतियॉ न कहकर,इसे आनुवांशिक-संक्रमण कहते हैं । अर्थात जिन संस्कारों को लेकर मैने जन्म लिया है,वे मेरे पूर्वजों के संचित समस्कार हैं,यही हमको कहना चाहिए।
10- आनुवॉशिक संक्रमणवाद में विना किसी प्रमॉण के हम मान लेते हैं कि अनुभव जड द्रव्य में हो सकता है।अर्थात मन के संस्कारों की छाप जड तत्व में रह सकती है। यहॉ पर हम समझ सकते हैं कि मौतिक संस्कार शरीर में रह सकते हैं,लेकिन इसका क्या प्रमॉण है कि मानसिक संस्कार शरीर में रहते हैं,क्योंकि शरीर तो नष्ट हो जाता है,फिर किसके द्वारा यह संस्कार संचरित होते हैं? अगर हम यह भी मान लेते हैं कि मन के संस्कार शरीर में रहना सम्भव है,और यह भी मान लेते हैं कि आनुवॉशिकता के अनुसार आदिम मनुष्य से लेकर पूर्वजों से मेरे पिता के शरीर में मौजूद हैं तो फिर यह प्रश्न उठता है कि ये सब संस्कार मेरे शरीर में आये कैसे? इसका उत्तर मिल सकता है कि जीवॉणु कोष के द्वारा,लेकिन यह कैसे सम्भव है? और पिता का शरीर तो सन्तान में सम्पूर्ण रूप से नहीं आता। इस संक्रमणवाद को मान लेने पर हमें यह भी मानना पडेगा कि माता-पिता को अपने बच्चे के जन्म पर अपने निजी संस्कारों का कुछ अंश खोना पडेगा। क्योंकि संचारक और जिसमें संचार होता है वह भौतिक है। इस स्थिति में प्रथम सन्तान के जन्म के बाद ही उन लोगों का मन पूर्णतः शून्य होना चाहिए।
11- अगर जीवाणुकोष में चिरकाल के संस्कार रहते हैं तो फिर प्रश्न यह उठता है कि वे कहॉ से आये और वे किस प्रकार के हैं ?यह तो बताया ही नहीं विज्ञान कि वे कैसे और कहॉ पर उस कोष में रहते हैं ? यह तो हमं समझ सकते हैं कि ये संस्कार मन में वास करते हैं,लेकिन मन बार-बार जन्म लेता है,मन ही यह कार्य कर सकता है।और इस मन ने जिस शरीर विशेष की प्राप्ति के लायक कर्म किये हैं, जबतक उस योग्य शरीर की प्राप्ति नहीं होती तबतक उसे इन्तजार करना होगा। क्योंकि आत्मा एक देह के बाद दूसरी देह में प्रवेष करती जाती हैऔर हम जो विचार करते हैं,जो सूक्ष्म कार्य करते हैं,वे सूक्ष्म भाव में रह जाते है और समय आने पर वही स्थूल रूप धारण कर प्रकट हो जाता है । वह मन में ही रहती है और किसी भी समय स्मृति-तरंग के रूप में प्रकट होने को प्रस्तुत रहती है।
12- इसी प्रकार ये समस्त संस्कार हमारे मन में विद्यमान हैं।और मृत्यु के समय वे सारे संस्कार मेरे साथ बाहर चले जाते हैं। माना इस कमरे में एक गेंद है ,हम सब एक-एक छडी से चारों ओर से उस गेंद पर मारने लगते हैं तो गेंद कमरे के एक कोने से दूसरे कोने में दौडने लगी और दरवाजे के नजदीक जाते ही बाहर चली गई । यहॉ पर देखना होगा कि यह गेंद किस शक्ति से बाहर गई ?इसका सीधा सा उत्तर होगा कि जितनी छडियॉ मारी गईं उनकी सम्मिलित शक्ति से। इसी प्रकार शरीर का त्याग होने परआत्मा की गति का निर्णायक क्या होगा? उसने जो-जो कर्म किये हैंजो जो विचार सोचे हैं,वे ही उसे किसी विशेष दशा में परिचालित करेंगे।
13- अपने भीतर उन सभी की छाप लेकर वह आत्मा अपने गन्तव्य की ओर जायेगी। यदि कर्मफल इस प्रकार के हैं कि उन्हैं भोगने के लिए उन्हैं पुनः एक नयॉ शरीर गढना पडे तो , वह ऐसे माता-पिता के पास जिनसे वह नय़ॉ शरीर गढ सके जायेगी। इसी तरह वह आत्मा एक देह से दूसरे देह में जाती रहती है,कभी स्वर्ग में तो कभी पृथ्वी में आकर मानव देह धारण कर लेती है। और तबतक वह जन्म लेती रहती है जबतक उसका भोग समाप्त होकर वह अपने निजी स्थान पर न लौट आती।
14 तब वह अपना असली स्वरूप जान लेती है। उसका सारा अज्ञान दूर हो जाता है,उसकी सारी शक्तियॉ प्रकाशित हो जाती हैं। तब वह पूर्णता को प्राप्त कर लेती है।फिर उसे स्थूल शरीर से कार्य करने की आवश्यकता नहीं रहती है । तब वह स्वयं ज्योति और मुक्त हो जाती है,फिर उसका जन्म या मृत्यु कुछ भी नहीं होता।
15- पुनर्जन्म जीवात्मा की स्वाधीनता की घोषणॉ करता है।बस यही तो एक मत है कि इससे कोई भी अपने दोषों को दूसरे के मत्थे नहीं मढ सकता,क्योंकि हम में यही तो कमी है कि हम अपनी गलती को मानने को तैयार नहीं हैं। आंखें अपने को कभी नहीं देखती है,पर वे सबकी आंखें देखा करती हैं। अपनी गलती को पडोसी पर लादना चाहते हैं। या ईश्वर के मत्थे मढना चाहता है। और यदि इसमें भी सफल न हुआ तो फिर भाग्य नामक भूत की कल्पना करता है । लेकिन प्रश्न उठता है कि भाग्य नामक वह वस्तु क्या है ?सीधी सी बात है कि हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता है।
16- देर होती है पर अन्धेर नही, जी हॉ इस पृथ्वी के दोषों का समाधान,पुनर्जन्म से ही सम्भव होता है । जो लोग अपनी दुखों या कष्टों के लिए दूसरे को दोषी मानते हैं,वे तो अभागे और दुर्वल मस्तिष्क के होते हैं। दूसरों पर दोष मढने पर भी उनकी दशा में तनिक भी परिवर्तन नहीं होता है। उन लोगों का उपकार नहीं हो सकता है। वे इस प्रवृत्ति से और भी दुर्वल होते जाते हैं। अपने दोषों के लिए किसी को उत्तरदाई न समझो,अपने ही पैरों पर खडे होने का प्रयत्न करो,सारे कार्यों के लिए अपने को ही उत्तरदाई समझो !यह कहें कि जिन कष्टों को हम अभी झेल रहे हैं,वे हमारे ही किये कर्मों का फल है।
17- अगर हम यह मान लेते हैं तो हमारे द्वारा किये बुरे कर्मों को नष्ट भी किया जा सकता है । जो कुछ भी हमने पैदा किया,उसका हम ध्वंस भी कर सकते हैं । और जो कुछ दूसरों ने पैदा किया, उनका नाश हमसे कभी नहीं हो सकता है।इसलिए उठो,साहसी बनो,वीर्यवान बनों,सारे उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लो। और यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो । तुम जो भी बल या सहायता चाहो सब तुम्हारे भीतर है। ज्ञान रूप शक्ति के द्वारा बल प्राप्त करो और अपने हाथों अपना भविष्य गाढो।सारा भविष्य तुम्हारे सामने पडा है। हमेशा इस बात का स्मरण रखो कि तुम्हारा प्रत्येक विचार,कार्य संचित हो रहा है,और जिस प्रकार तुम्हारे विचार और कार्य शेरों की तरह तुम पर कूद पडने की ताक में हैं,उसी प्रकार तुम्हारे सत् विचार और सत् कार्य भी हजारों देवताओं की शक्ति को लेकर तुम्हारी रक्षा करने के लिए तैयार हैं ।
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